U TURN

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

हिन्‍दी के पॉपुलर फिक्‍शन की नई शुरूआत है ‘वो चली गई’

फ़र्ज कीजिए आप ट्रेन या बस में अकेले ही कोई लंबी यात्रा पर हैं और वक्‍़त काटने के लिए कुछ पढ़ना चाहते हैं तो अब तक हिन्‍दी के पाठकों के लिए केवल दो विकल्‍प मौजूद थे । या तो आपको हिन्‍दी के प्रख्‍यात साहित्‍यकारों की कालजयी कृतियां पढ़नी पडती थीं या फिर सड़क छाप साहित्‍य को चुनना होता था। कुछ हल्‍का-फुल्‍का और रिफ्रेंशिंग जैसा लगभग नदारद ही था और उधर हिन्‍दी को अपने चेतन भगत का लंबे समय से इंतजार था. पिछले कुछ वर्षों में हिन्‍दी किताबों की दुनिया पर नज़र डालने से साफ हो जाता है कि हिन्‍दी में आज के शहरी युवा वर्ग को केन्‍द्र में रख कर कुछ नया नहीं लिखा गया है. न ही किसी नई प्रेम कथा ने युवाओं को गुदगुदाया है. मानो हिन्‍दी दुनियां में प्रेम का रस ही सूख गया हो. पर शायद हिन्‍दी पाठकों का यह इंतजार अब ख़त्‍म होने जा रहा है. हाल ही में आया विनीत बंसल का हिन्‍दी उपन्‍यास ‘वो चली गई’ इन दिनों चर्चा में है और हिन्‍दी के युवा पाठकों द्वारा खूब सराहा जा रहा है. 
विनीत पेशे से बैंकर हैं और इन दिनों दिल्‍ली में ही भारतीय स्‍टेट बैंक में कार्यरत हैं. दरअसल विनीत की हालिया किताब ‘वो चली गई’ उनके पहले अंग्रेजी उपन्‍यास ‘आई एम हर्टलैस’ का हिन्‍दी संस्‍करण है. परंतु उपन्‍यास का अनुवाद इतनी खूबसूरती से किया गया है कि लगता है कि हम मूल हिन्‍दी रचना पढ़ रहे हैं. इसकी वजह बताते हुए विनीत कहते हैं कि ‘अनुवाद कार्य के दौरान मैंने यह ध्‍यान रखा कि कहानी को हिन्‍दी भाषा में उसी सरलता के साथ रूपांतरित किया जाए जिस अंदाज में उसे अंग्रेजी में लिखा गया था. इसीलिए अनुवाद कार्य भी प्रमुखता से मैंने स्‍वयं किया है’. शायद यही वजह है कि ‘वो चली गई’ को पढ़ते हुए हमें एक पल के लिए भी नहीं लगता कि हम कोई अनुदित पुस्‍तक पढ़ रहे हैं बल्कि यह पूरी तरह मौलिक रचना जान पड़ती है.
‘वो चली गई’ कहानी है कालेज जाने वाले युवाओं की बेइंतहा मौहब्‍बत, एक कैंपस/होस्‍टल की अहमकाना हरकतों, अपने प्‍यार को हासिल करने की जद्दोजहद, ठुकराए जाने के दर्द, फिर सच्‍चे प्‍यार को न पहचान पाने की त्रासदी और अपराध बोध में तिल-तिल कर मरते उपन्‍यास के नायक विरेन की । एक विश्‍वविद्यालय को पृष्‍ठभूमि में रखकर लिखे गए इस उपन्‍यास में वह सब कुछ है जो आज के कॉलेज/यूनिवर्सिटी जाने वाले एक आम युवा की जिंदगी में घटता है. विनीत ने अपने उपन्‍यास के हर पृष्‍ठ पर कॉलेज की इसी अल्‍हड़ और बेफिक्र जिंदगी को जिया है. कहानी के नायक विरेन ने प्‍यार किया और दीवानगी की हद तक प्‍यार किया, फिर दिल का टूटना, नाकाम मौहब्‍बत में बदले की आग, वहशीपन और फिर बहुत कुछ खो देने के बाद सच्‍चे प्‍यार की पहचान और उसे पाने की तड़प में जलता विरेन. कहानी ज्‍यों-ज्‍यों आगे बढ़ती है हमें अपनी गिरफ्त में लेती चलती है. विनीत के इस उपन्‍यास की खास बात यह है कि उपन्‍यास के शुरूआती हिस्‍से में कॉलेज/ यूनीवर्सिटी में किताबों के बीच पनपने वाले इस प्‍यार के अहसास को असलियत के काफी नजदीक तक जाकर कैद करने की कोशिश की गई है. किताबों और परीक्षाओं के दबाव के बीच भी प्रेम अपनी जगह बना ही लेता है. प्रेम की मासूमियत और रूमानियत पूरे उपन्‍यास में तारी है जो उपन्‍यास के कथानक के साथ हर पल रंग बदलती है। क्‍या यूनिवर्सिटी कैंपस को पृष्‍ठभूमि में जानबूझ कर रखा गया है? इस पर विनीत कहते हैं कि ‘यह सब कुछ प्‍लानिंग करके नहीं किया गया है. बल्कि उपन्‍यास की कहानी सच्‍ची घटना पर आधारित है इसलिए इसे हूबहू कागज पर उतारने की कोशिश की गई है और कैंपस का पृष्‍ठभूमि में आना पूरी तरह स्‍वाभाविक है’.

उपन्‍यास में रूमानी पलों को बहुत संजीदगी से लिखा गया है. कहानी में पात्र प्रेम के बंधन में बंधे होकर इसके सरूर को पूरी तरह महसूस करते हैं. ‘जब प्यार की ख़ुमारी चढती है तो हर चीज़ प्यारी लगने लगती है। चलना-खाना-सोना हर वक्त एक अजीब सा बुखार, एक कभी ना उतरने वाला नशा दिलो-दिमाग को अपने आगोश मे लिए रहता है’. कहानी के युवा पात्रों के माध्‍यम से विनीत ने एक कैंपस के मिजाज और माहौल को भी बड़ी खूबसूरती से उकेरा है. कैम्‍पस का जिक्र इस तरह किया गया है कि वह हर पाठक को अपना ही कॉलेज/यूनीवर्सिटी का कैम्‍पस लगता है. ‘वापसी मे हम यूनिवर्सिटी कैफे पर रूके, हमने हॉस्टल मे सुन रखा था कि पूरे कैम्पस में प्रेमी जोड़ों के मिलने के लिए यह सबसे अच्छी जगह है तो सोचा क्यों ना हम भी इस प्रेमालय के दर्शन कर लें। वहां बैठे-बैठे मैं कल्पना की उड़ान भरने लगा कि किसी दिन मैं भी यूनिवर्सिटी की सबसे हसीन लड़की के साथ यहां बैठूंगा। ख़ैर, वहां कि बेस्वाद कॉफी (जिसे वहां बैठने वाले पीते कम ही हैं.. सिर्फ ऑर्डर देते हैं...) पीने के बाद हम हॉस्टल वापस आ गए’.
‘वो चली गई’ की कथा की बुनावट कुछ इस तरह की है कि हर पात्र हमें बहुत जाना-पहचाना और अपना सा लगता है और कई जगह महसूस होता है कि अरे यह तो मेरी अपनी कहानी है. दरअसल जिंदगी के किसी न किसी मोड़ पर हम सब वीरेन की तरह थे या फिर थोड़ा-थोड़ा वीरेन हम सबके भीतर मौजूद है. बकौल विनीत कहानी का नायक वीरेन एकदम नैचुरल है और असल जिंदगी से उठाया हुआ पात्र है...वह गलतियां करता है और बार-बार ग‍लतियां करता है. कहानी के हालात नायक विरेन को एक एंटी-हीरो में बदलने लगते हैंफिर भी हमें उससे नफरत नहीं होती क्‍योंकि कहीं न कहीं वीरेन के बर्ताव और आदतों के पैटर्न का कारण है.  
यह सीधी सपाट सी कहानी शब्‍दों की पगडंडी पर अपनी अल्‍हड़ चाल से लय के साथ चलती रहती है. हां, कुछ किस्‍सों और पात्रों के बिना भी काम चलाया जा सकता था और कुछ दृश्‍यों को संक्षिप्‍त किया जा सकता था. परंतु फिर भी वे बोझिल नहीं होते और पाठक के ऊब का शिकार होने से बहुत पहले ही विनीत अचानक से कहानी में सरप्राइज एलीमेंट लेकर सामने आते हैं. उनके पहले अंग्रेजी उपन्‍यास की सफलता के बारे में पूछने पर विनीत बताते हैं कि ‘आई एम हर्टलैस’ को पाठकों का भरपूर प्‍यार मिला है और कुछ ही महीनों में इसकी 30,000 से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं और नेशनल बैस्‍ट सैलर घोषित हो चुकी है. पाठकों, खासकर युवाओं से बहुत उत्‍साहवर्धक प्रतिक्रियाएं मिली हैं और मुझे उम्‍मीद है कि हिन्‍दी संस्‍करण को और भी अधिक स्‍नेह प्राप्‍त होगा’
उपन्‍यास का अंत कुछ ऐसा है जिसकी पाठक शायद कल्‍पना भी नहीं करेगा. उपन्‍यास के शीर्षक से ही जारी है कि कहानी का अंत सुखांत नहीं है. इस पर बात करते हुए विनीत कहते हैं कि कुछ प्रेमकथाएं फूलों की महक के साथ खत्‍म होती पर अधिकांश अधूरी रहती हैं। अब हर प्रेमकथा का अंत सुखांत हो ये जरूरी तो नहीं...हमारी जिंदगी में भी कब हर चीज हैप्‍पी नोट पर खत्‍म होती है.

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि विनीत का यह उपन्‍यास हिन्‍दी पुस्‍तकों की दुनियां में नई संभावनाओं के द्वार खोलने जा रहा है और शायद हिन्‍दी को अपने चेतन भगत की अब और अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी होगी. 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें