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मंगलवार, 20 सितंबर 2011

‘आम जनता’

आम जनता
- सौरभ आर्य

आम जनता नित्‍य पिसती, ज्‍यों मसाले पिस रहे हों
चंद टुकडों के सहारे, जिंदगी को घिस रहे हों,
भूख के आधार पर प्रगति की कैसी कथा है
वंचितों के स्‍वर से फूटी, कष्‍ट की अद्भुत व्‍यथा है।


राष्‍ट्र प्रगति कर रहा है, कहना तो आसान है
पर फांसियों पर झूलता क्‍यों, इस देश का किसान है,
इस गरीबी और अमीरी के सनातन युद्ध में
देश दो भागों में बंटता पर हमें अभिमान है।



भूकम्‍प से गर बच गए तो, भूख से निश्चित मरेंगे
इस जमीं के देवता कब, जाने इस दुःख को हरेंगे,
वोट देकर जिनको भेजा दिल्‍ली के संसद भवन में
उस भूल का फिर खामियाजा, आमजन कब तक भरेंगे ।


सत्‍याग्रह के गीत गाता, ये पपीहा कौन है
रक्‍त रंजित गोधरा पर का वो मसीहा कौन है,
इंसानियत का कत्‍ल होता, दिन दहाड़े चौक पर
सभ्‍यता के इस समर में, हारा जीता कौन है ।

बम धमाकों में जो मरते आमजन हम तुम ही जैसे
मृत्‍यु के इस शोक पर भी नाच नंगे कैसे-कैसे,
लोकतंत्र के इस भवन को हम नमन कैसे करें अब
आमजन की वेदना पर मौन धर के बैठें हैं सब ।


चल रही ऐसी हवाएं माना कि तूफान हो
तीर तरकश का धनुष पर, अब आखिरी संधान हो,
कस कमर अब उतरो रण में, चाहे प्राण ही बलिदान हो
राष्‍ट्रभक्ति के हवन में, हर शक्ति के आह्वान हो ।


- जय हिन्‍द - 
(दिनांक 19.09.2011 को वस्‍त्र मंत्रालय में आयोजित हिन्‍दी काव्‍य पाठ प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्‍कार प्राप्‍त्‍ा कविता)

बुधवार, 13 जुलाई 2011

द न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड: थैंक यू एण्‍ड गुड बाय

  


      ब्रिटेन का एक अख़बार न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड जो 168 वर्ष पूर्व शुरू हुआ और कई पीढि़यों का संगी-साथी बना अंतत: चंद रोज पहले बंद कर दिया गया। अपने अंतिम अंक थैंक यू एण्‍ड गुड बाय के साथ 27 लाख की प्रसार संख्‍या और न्‍यूज कार्पोरेशन की दुधारू गाय न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड का अचानक बंद हो जाना कोई सामान्‍य घटना नहीं है। लेकिन इसके असमय अंत के लिए आत्‍महंता की भूमिका न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड ने स्‍वंय ही निभाई। पत्रकारिता जब धर्म न रहकर पूर्णतया व्‍यवसाय बन जाएगी तब यही होगा। साध्‍य के लिए साधन की शुचिता के प्रश्‍न पर इस अख़बार ने अपनी आंखें मूंद लीं। गंदा है पर क्‍या करें, धंधा है के तर्क को आधार बना कर चलने वालों ने ही पत्रकारिता को कोठे पर पहुंचा दिया है ।

      शुरूआती दौर में गंभीर खबरों और मनोरंजन से भरपूर हल्‍की फुल्‍की खबरों के बीच के नाजुक संतुलन को कायम कर पूरी तरह एक टेब्‍लॉयड की भूमिका में अपने स्‍लोगन ऑल ह्यूमन लाइफ इज देअर को चरितार्थ किया और लोगों ने भी इस अख़बार को हाथों हाथ लिया । मगर फिर वह हुआ जो हर धंधे में होता है... द न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड को सैम कैम्‍पबेल के संपादन में निकलने वाले द संडे पीपल ने कड़ी टक्‍कर दी। खोजी पत्रकारिता के दम पर द पीपल तेजी से बुलंदियों को छूने लगा और द न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड की प्रसार संख्‍या धराशायी होने लगी। ऐसे मुश्किल दौर में द न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड का हाथ लौरी मैनीफोल्‍ड ने थाम लिया। मैनीफोल्‍ड को यदि आधुनिक खोजी पत्र‍कारिता का पिता कहा जाए तो शायद गलत न होगा। जल्‍द ही मैनीफोल्‍ड ने खाजी पत्रकारिता के तौर तरीकों में प्रशिक्षण देकर ट्रेवर कैम्‍पसन, माईक गैब्‍बर्ट और मज़ह‍र महमूद जैसे पत्रकारों की जमात तैयार की । मैनीफोल्‍ड ने सनसनीखेज खबरों के एक नये युग का सूत्रपात तो किया मगर किसी भी कीमत पर शॉर्ट कट और अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। द न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड ने समय- समय पर जनहित के लिए तमाम ऐसे खुलासे किए जिनके धमाकों की गूंज लंबे समय तक सुनाई देगी।

      पर वक्‍त के साथ सब बदलता गया । उधर द न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड के धुर विरोधी द पीपल ने सैक्‍स और सेलेब्रिटियों को लेकर एक सीरीज शुरू की तो द न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड ने छल-प्रपंच का सहारा लेकर आगे बढ़ना शुरू कर दिया । इसके बाद पादरियों, राजनेताओं और फिल्‍मी हस्तियों समेत तमाम रसूखदारों के यौन अवगुणों के पर्दाफाश की कहानियां छापना इसका रेगूलर फीचर बन गया। लोग चटखारे लेकर पढ़ रहे थे पर सैक्‍सी और सीरियस खबरों का संतुलन लगातार बिगड़ रहा था। शायद ब्रिटेन के समाज में आ रहे बदलावों के साथ पाठकों की पसंद भी बदल रही थी। अब अंतरंग संबंधों की चासनी में लिपटी खबरें और बेहद निजी बातें भी सार्वजनिक होने लगीं थीं। अख़बार छाप रहा था क्‍योंकि पाठक यही पढ़ना चाहता था। अधनंगी तस्‍वीरें, लोगों की नितांत व्‍यक्तिगत बातचीत, हैक्‍ड ई-मेल्‍स और मोबाइल संदेश छपना अब आम हो चला था । पर इस बीच अख़बार सही और गलत के बीच की सीमा-रेखा खींचना भूल गया। धंधे के नाम पर सब जायज था और बस यहीं से द न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड के पतन की कहानी शुरू हो गई।
     
      ये सच है कि लोगों की निजी जिंदगी में तांक-झांक के लिए कोई अख़बार कभी बंद नहीं हुआ। पर द न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड ने सारी हदें पार कर दीं और इसने फोन टेप करने वाले तकनीशियनों, हैकरों की सेवाएं लेकर 7 जुलाई 2005 को लंदन आतंकी हमले में मारे गए एवं घायल हुए लोगों के रिश्‍तेदारों की फोन पर बातचीत एवं ई-मेल को हैक किया और छापा। पहली बार त्रासदी के छणों में लोगों की व्‍याकुलता और अभिव्‍यक्ति से अख़बार में मिर्च-मसाला डाला गया। लोगों की निजता के हनन नाम की अब कोई चीज नहीं रह गई थी । लेकिन अब शायद पाप का घड़ा भर चुका था। बवाल मचा और इस कदर मचा कि रूपर्ट मर्डोक का पूरा न्‍यूज कार्पोरेशन खतरे में पड़ गया। अलबत्‍ता ये रूपर्ट मर्डोक ही थे जिन्‍होंने द न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड को पीत पत्रकारिता के गर्त में धकेला था। न्‍यूज इंटरनेशनल की सीईओ रेबेका ब्रूक्‍स विरोध के बावजूद अभी भी अपने पद पर बनी हुई हैं। रेबेका, ब्रिटिश प्रधानमंत्री कैमरून, पूर्व संपादक एंडी काउल्‍सन जो बाद में प्रधानमंत्री के जन संचार निदेशक बन गए, के आपसी समीकरण काफी कुछ कहते हैं। पर फिलहाल यहाँ प्रश्‍न एक अख़बार की असमय मृत्‍यु का है।

        बेशक इस अख़बार के अंत के साथ पत्रकारिता के एक स्‍याह युग का अवसान हो गया मगर मुनाफे और प्रतिस्‍पर्धा के लिए द न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड ने जिन मर्यादाओं का उल्‍लंघन किया वे भविष्‍य के लिए कुछ मापदंडों की ओर इशारा करती हैं जिन्‍हें टैब्‍लॉयड जर्नलिज्‍म के लिए पैमाना बनाना होगा ताकि फिर किसी अखबार को इस तरह गुडबाय न करना पड़े।     

 -सौरभ आर्य  

बुधवार, 6 जुलाई 2011

'आई हेट यू, लाइक आई लव यू'.








पिछले शुक्रवार से सुर्खियां बटोर रही फिल्‍म डेल्‍ही बेली पर कुछ ब्‍लॉग पढ़े । कुछ लेखक बंधु इसे हिन्‍दी सिनेमा में नए प्रयोग तो कुछ इस फिल्‍म की भाषा को यूथ की भाषा कहकर महिमामंडित करने में जुटे थे और मौहल्‍ला लाइव पर मिहिर पंड्या इसे स्‍त्री के समर्थन में खड़ी फिल्‍म करार दे रहे थे। कुछ संशय था सो कल शाम कनॉट प्‍लेस के ऑडियन सिनेमा में ये फिल्‍म देख डाली। इस थियेटर का चयन भी मैंने मिहिर के तर्कों को कसौटी पर परखने के लिए किया कि क्‍या देहली बेली वाकई स्‍त्री के साथ खड़ी है। दिल्‍ली का कनॉट प्‍लेस दिल्‍ली ही नहीं देश के संभ्रात कहे जाने वाले धनाड्य परिवारों का पसंदीदा इलाका है। देश भर में जो आसानी से हलक के नीचे न उतरे उसके यहां आसानी से हजम हो जाने के ज्‍यादा चांसेज हैं। पर यहां फिल्‍म से पहले, फिल्‍म के दौरान और खास तौर पर फिल्‍म के बाद लोगों (विशेषकर युवतियों/महिलाओं) की प्रतिक्रिया दिलचस्‍प थी। मैं फिल्‍म का मूल यानि कि अंग्रेजी वर्शन देख रहा था...भाषा किसी संस्‍कृति की सीधी प्रतिनिधी होती है और यही काम यहां अंग्रेजी कर रही थी...जो गालियां कहीं कहीं अंग्रेजी में अत्‍यंत सहज लग रहीं थी उनके हिंदी अनुवाद की कल्‍पना मात्र से ही सिहरन पैदा हो रही थी। हां, इसके हिन्‍दी वर्शन के कुछ संवाद कान खड़े करने वाले हैं...जिन्‍हें ऐसा होने से बचाया जा सकता था...पर शायद जानबूझ कर रखा गया था। गंदा है पर क्‍या करें धंधा है की फिलॉसफी पर बेशर्मी को भी लैजिटिमेट का दर्जा कैसे दिया जाए कोई इनसे सीखे। फिल्‍म में गाली कहीं कहीं जम रही थी तो वहीं ज्‍यादातर जगहों पर जबरदस्‍ती जमाई गई प्रतीत हो रही थी।

  मेरी बगल वाली सीट पर एक युवती जो अपने ब्‍वॉयफ्रेंड के साथ फिल्‍म देखने आई थी, पूरी फिल्‍म के दौरान उसका हाथ तो मुंह पर था पर हां हर अल्‍ट्रा-बोल्‍ड और हाजमा बिगाडने वाली चीज पर हल्‍का सा ठहाका लगाकर एक '' सर्टिफिकेट फिल्‍म को 'यू' सर्टिफिकेट वाली फिल्‍म के अंदाज में देखने और खुद को असहज स्थिति से बचाने/ हाजमा ठीक रखने की असफल सी कोशिश करती रही। पूरी फिल्‍म के दौरान 'ओह शिट्ट' और 'ओह फक' के स्‍वर गुंजायमान थे सवाल था कि जिस तरह से उपरोक्त दोनों हैल्पिंग वर्ब्‍स को हमारे समाज (खासकर मैट्रो शहरों का युवा वर्ग)ने आसानी से पचाया है वैसे ही वे नई गालियों और नई हैल्पिंग वर्ब्‍स को पचाने में सक्षम हैं या नहीं। फिल्‍म हर फ्रेम के साथ आपको चौंकाती है...जिसकी आप उम्‍मीद नहीं करेंगे वही वही देखने को मिलेगा। सिनेमा में नए प्रयोग की दुहाई के नाम पर शायद आमिर ख़ान समाज के हाजमे की ताकत का ही जायजा ले रहे हैं। डीके बोस यूं ही नहीं भागा उसे बहुत सोच समझ कर भगाया जा रहा है...यत्र तत्र सर्वत्र बरसती गालियों और नवस्‍थापित स्‍लैंग्‍स पर शायद सेंसर बोर्ड बीप का बटन दबाना ही भूल गया। पेशे से अनुवादक होने से दिमाग खुद ब खुद हर नई गाली का निकटतम हिन्‍दी पर्याय ढूंढ रहा था पर फिल्‍म का हिंदी वर्शन तैयार हो चुका है और दौड़ रहा है। कोई आश्‍चर्य नहीं था कि ऐसे शब्‍दों के अनुवाद से उपजी कुरूपता को निर्माता निर्देशक भाषा के मत्‍थे जड़ देगा और इस क्‍लासिकल नंगई से खूब पैसा वसूलेगा । मुझे कहीं भी ये फिल्‍म स्‍त्री के साथ खड़ी दिखाई न‍हीं दी...फिल्‍म की नायिका हां नायिका कहना ही उचित होगा, सिगरेट पीकर, टूटे शीशे की कार में खुलेआम लंबा चुंबन देकर या फिर होटल के कमरे में गरम आवाजों से आफत टाल कर क्‍या वास्‍तव में एक सशक्‍त स्‍त्री के प्रतिमान स्‍थापित कर रही है। साफ दिखता है कि निर्माता ने बड़ी चतुराई से इस सॉफ्ट पोर्न नुमा चीज को सिनेमा का नया प्रयोग करार दिया है। देहली बेली टिटिलेशन देने में तो सफल नज़र आती है पर कोई संदेश देने में नाकाम ही रही। ये सारे प्रयोग/हरकतें 'प्‍यार का पंचनामा' में भी किए गए पर एक कंट्रोल्‍ड अंदाज में । शायद कुछ लोग बहुत सोच समझ कर सिनेमा को एक नई दिशा दे रहे हैं। मुझे पूरा यकीन है जल्‍द ही दर्शक इन घटिया हथकंडों को नकार देगा। फिल्‍म की समाप्ति पर भीड़ पर मेरे आगे चल रही लड़की ने जब अपने साथी से कहा ''यू नो !! दे हैव डैलीब्रेटली पुट ऑल दिस...ओह गौड़. इट वॉज़ टू मच'' तो फिल्‍मकार की नीयत साफ हो गई। वो समझता है कि दर्शक बेवकूफ है. 

      आमिर के पूर्व के नायाब प्रयोगों का जितना स्‍वागत किया गया शायद उतना ही देहली बेली के इस तथाकथित प्रयोग को नकारा जाना चाहिए। आमिर के लिए मैं इतना ही कहना चाहूंगा....'आई हेट यू, लाइक आई लव यू'.

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

अनिल भट्ट की कविता sometimes का हिन्‍दी अनुवाद

Sometimes

Sometimes I feel

that sometimes you feel

what I feel sometimes

Sometimes you feel

that sometimes i feel

what you feel sometimes

yet often we feel

that we shouldn’t often feel

what we feel sometimes. - from Heart strings by Anil Bhatt



कभी कभी मैं ये महसूस करता हूं,

कि कभी कभी तुम महसूस करती हो

मैं जो कभी कभी महसूस करता हूं।


कभी कभी तुम ये महसूस करती हो

कि कभी कभी मैं महसूस करता हूं

कभी कभी जो तुम महसूस करती हो।


फिर भी अक्‍सर हम महसूस करते हैं

हमें अक्‍सर महसूस नहीं करना चाहिए

हम जो कभी कभी महसूस करते हैं।

अनुवाद- सौरभ आर्य

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

बेदर्द ठंड और खाली पेट गुजरी एक रात....


कल रात ऑफिस से आते आते रात के 9 बज गए और थकान और हड्डीयों तक घुस चुकी ठंड ने रजाई की शरण लेने पर मजबूर कर दिया और सोचा दस मिनट इस तीसरे आयाम में ठंड से निजात प्राप्‍त की जाए। बस फिर क्‍या था...कुछ उलझे से ख्‍यालों ने होश को आ घेरा सारे विचार आपस में गुथ कर गड्डमड होने लगे...फिर क्‍या हुआ साफ साफ याद नहीं । शायद नींद ने मुझे अपने आगोश में ले लिया। गैस के पास रखा डिनर इस इंतजार में सुस्‍ताता रहा कि रजाई में दुबका शख्‍स अब निकलेगा तब निकलेगा। पर ठंड ने रूह को इस कदर सताया था कि भूख पेट की अतल गहराइयों में जा छुपी और पूरी रात वहीं दुबकी रही। अचानक पेट में कोई हलचल हुई और आँख खुल गई .... कमरे की लाइट जल रही थी, मेरे ऊपर रजाई और रजाई के ऊपर अखबार पसरा पड़ा था। धीमी धीमी आवाज में पास चल रहे रेडियो पर कोई कुछ गा रहा था। गली का चौकीदार नीचे जोर जोर से डंडा पटका कर अपनी हाजिरी लगा रहा था। घडी में झांका तो देखा की छोटी सुंई पाँच के पास लटक रही है....और भूख पूरे शरीर में भटक रही है।