U TURN

रविवार, 30 दिसंबर 2012

संवेदना और शोक के समंदर में डूबी दिल्‍ली करेगी न्‍यू ईयर का स्‍वागत सनी लिओन के साथ ?

भारतीय मूल की कनेडियन पोर्न स्‍टार सनी लिओन नववर्ष की पूर्व संध्‍या पर दिल्‍ली में एक स्‍टेज शो करने जा रही हैं. पूरा देश जिस गैंग रेप की घटना के बाद इस वक्‍त नारी अस्मिता और सम्‍मान के लिए उबल रहा है ठीक उसी समय एक पोर्न स्‍टार के देश की राजधानी में होने जा रहे स्‍टेज शो ने एक नई बहस को जन्‍म दे दिया है. ये शो 31 दिसंबर की रात बाराखंबा रोड़ स्थित होटल ललित में आयोजित होगा. जहां कुछ लोग इसे नारी देह की स्‍वतंत्रता से जुड़ा मसला मान कर देख रहे हैं तो कईयों को इसमें कानूनी रूप से कोई गलत बात नज़र नहीं आती है. पर वहीं एक बड़ा तबका ऐसे लोगों का है जो एक पोर्न स्‍टार के शो को हलक से नीचे नहीं उतार पा रहा है. निश्‍चित ही समाज की तमाम वर्जनाएं टूट रही हैं और नए प्रतिमान स्‍थापित हो रहे हैं. पर क्‍या सनी लिओन ही वह सेलेब्रिटी है जिसके साथ दिल्‍ली को न्‍यू ईयर सेलीब्रेट करना चाहिए ?

      तमाम लोग सनी लिओन जैसी पोर्न स्‍टार को नारी देह की स्‍वतंत्रता का प्रतीक मान रहे हैं. इसमें मुझे शक है कि कोई पोर्न स्‍टार जिस नारी देह की स्‍वतंत्रता का दम भरती है वह वाकई किसी प्रकार की स्‍वतंत्रता है. स्‍वतंत्रता और व्‍यवसाय में फर्क है. हां वे स्‍वतंत्र हो सकती हैं अपने देश और अपने समाज में. वहां तो पहले ही सेक्‍स को लेकर इतनी वर्जनाएं नहीं हैं. फिर यह कैसी स्‍वतंत्रता है? हम कितना भी इसके पक्ष में तर्क करें पर अंतत: वह स्‍त्री को एक उपभोग की वस्‍तु से ज्‍यादा कुछ स्‍थापित नहीं कर पाती हैं. और यहीं से शुरू होती है स्‍त्री को मात्र एक देह समझने की संस्‍कृति.

एक दूसरा प्रश्‍न जो इस बहस में कुछ लोग उठा रहे हैं वह यह है कि क्‍या सनी लिओन जैसी पोर्न एक्‍ट्रेस के कारण बलात्‍कार जैसे अपराधों में कोई इजाफा होगा?  दरअसल प्रश्‍न भविष्‍य में परिणामों का नहीं है बल्कि प्रश्‍न है कि हम अपने आस-पास स्‍त्री की कौन सी छवी को स्‍थापित कर रहे हैं. मैं यहां संस्‍कृति और इतिहास की दुहाई नहीं देना चाहूंगा कि साहब हमारी संस्‍कृ्ति में ये होता था या स्‍त्री को ऐसे देखा जाता था. मैं यहां आपकी, मेरी और हम सबकी बात करना चाहूंगा. क्‍योंकि संस्‍कृति पर बहस करेंगे तो वह बहस भी विवादास्‍पद हो जाऐगी क्‍योंकि हमारा इतिहास भी ऐसे असंख्‍य दृष्‍टांतो से भरा पडा है जहां स्‍त्री को केवल भोग की वस्‍तु के रूप में देखा और समझा गया है. प्रश्‍न हमारा और आज का है कि आज हम स्‍त्री को क्‍या समझते हैं ? एक उपभोग की वस्‍तु या समाज का एक सम्‍मानीय अंग? स्‍तु   की, मेरी और हम सबकी बत

हम इस सत्‍य से नहीं भाग सकते कि इस वर्ष गूगल में भारतीयों ने जिस शख्स का नाम सबसे ज्‍यादा सर्च किया वह सनी लिओन ही हैं. बेशक होंगी. समाज में जब बीज ही आक के बोए जा रहे हों तो आम कहां से होंगे. क्‍या सनी लिओन एक बेहतरीन अभिनेत्री हैं जो महेश भट्ट ने पूरी दुनिया की अभिनेत्रियों को छोड़कर मात्र सनी को चुना. यह केवल भारतीय समाज में सेक्‍स को लेकर सदियों की गहरी बैठी कुंठाओं को भुनाने का जरिया मात्र है. अब हमें देखना होगा कि क्‍या यह समस्‍या है? तो मेरे नजरिए से यकीनन है.....सेक्‍स के लिए वाजिब खुला स्‍पेस अवश्‍य ही होना चाहिए. जितनी अनावश्‍यक वर्जनाएं हैं जरूर टूटनी चाहिएं. पर इसके कुछ नियम तय करने होंगे. क्‍योंकि हर चीज सही या गलत देश काल ओर परिस्थितियों से तय होती है. हमारा समाज (जिसमें कि देश का गांव देहात और वो हिस्‍सा भी शामिल है जहां औरतों को पराए मर्द को अपना चेहरा तक नहीं दिखाने के संस्‍कार/संस्‍कृति प्रचलित हैं) पोर्न स्‍टार्स को स्‍वीकारने के लिए परिपक्‍व नहीं हुआ है. इसके लिए एक दूसरे ही समाज की आवश्‍यकता है. जो‍कि भारत में फिलहाल संभव नहीं है. जहां हमारे घरों में स्‍त्री-पुरूष संबंध अभी भी जंजीरों में उलझे हों वहां किसी पोर्न स्‍टार के बूते नारी की स्‍वतंत्रता की दुहाई मात्र ढकोसला ही रह जाती है. बहुत से सज्‍जन सनी लिओन के सेलेब्रिटी बनाने पर की जा रही आपति पर बहस करते हुए तर्क देते हैं कि भाई यह भी एक प्रोफेशन है इसमें क्‍या बुराई है? इस पर बांग्‍लादेश की लेखिका तस्‍लीमा नसरीन इन लोगों से तीखा प्रश्‍न करते हुए पूछती हैं कि जब आप पॉर्न स्टार को एक सेलेब्रिटी बनाते हैंतो आप एक एस्ट्रानॉटइंजीनियर या डॉक्टर बनाने की बजाय अपनी बेटियों को भी एक पार्न स्टार बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ? सवाल वाजिब है और बहुत संभव है कि इसका उत्‍तर उन लोगों के पास नहीं होगा.

सनी लियोन को लाना एक लॉबी और एक विचार-पक्ष के लोगों की सोची समझी रणनीति ही है....और इसकी शुरूआत महेश भट्ट अपनी फिल्‍म जिस्‍म 2 से पहले ही कर चुके हैं. उन्‍होंने बरसों से कुंठा में जी रहे भारतीय समाज को एक सेक्‍स के बडे सिंबल से परिचय करवा दिया है. ये एक शुरूआत भर थी जिसे अब बाजार पूरी तरह भुनाने को तैयार बैठा है. फिल्‍म के बाद जितने एंडोर्समेंट सनी लिओन को भारतीय बाजार से मिले हैं वह वाकई हैरतंगेज हैं. बिग बास में तो प्रतिभागियों के लिए पहली शर्त ही विवादास्‍पद होना है. कुछ दिनों पूर्व देश के सभी प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में सनी लिओन के चित्रों से अटे मैनफोर्स कोंडोम कंपनी के पूरे पूरे पृष्‍ठ के रंगीन विज्ञापन अभी सभी को याद ही होंगे. अब सनी लिओन भारत में दिल्‍ली वालों को नये साल की खुशियां मनाने का सलीका सिखाने आ रही हैं. ये बस एक शरूआत है....दुनिया भर की पोर्न इंडस्‍ट्री भारत में अरबों रूपए का बड़ा बाजार देख रही है और महेश भट्ट जैसे हमारे देसी एजेंट उनके आगमन को अवतार साबित करने में कोई कसर नहीं छोडेंगे.

बेशक इस स्‍टेज शो के टिकट इतने मंहगे हैं कि इस शो में देश का धनाढ्य तबका ही शामिल होगा पर क्‍या ये धनाढ्य और तथाकथित ‘सभ्रांत’ तबका इस समाज का हिस्‍सा नहीं है? वे कौन लोग हैं जो संवदेना और शोक में डूबे शहर के बीच से निकल कर इस जश्‍न में शामिल होंगे? क्‍या उन्‍हें यकीन है कि उनकी बच्चियां सुरक्षित हैं? क्‍या वे ये समझते हैं कि दिल्‍ली और पूरा देश यूं ही शोर कर रहा है ?क्‍या ये डिसकनेक्‍टेड लोग हैं? या देश और समाज से कोई सरोकार न रखने वाले लोग ये केवल और केवल अय्याशी है. हम अय्याशी को हवा देंगे तो बलात्‍कार जैसे अपराध बढेंगे ही. परंतु अब अगर आप मुझसे पूछने लगें कि क्‍या मेरे पास इस बात के कोई प्रमाण मौजूद है कि सनी लिओन के शो से निकलने के बाद कितने लोगों ने बलात्‍कार किए तो साहब इस वाहियात प्रश्‍न का उत्‍तर न होने के लिए मैं पहले ही क्षमा मांग लेता हूं. सनी लिओन भले ही बलात्‍कार जैसे अपराधों के लिए उत्‍तरदायी न हो पर वह स्‍त्री की वह क्षवि खड़ी नहीं करती जिससे कि हम एक स्‍त्री को सम्‍मान की दृष्टि से देख पाएं.

बाजार से किसी को सीधे तौर पर कोई खतरा नहीं दिखाई देता है. यही बाजार की कला है कि वह आपको ज़हर भी इस अदा से बेचता है कि आप उसे अमृत मान कर खरीद लेते हैं. जिस स्‍वतंत्रता और स्‍त्री अधिकार के नाम पर नंगापन समाज में सींचा जा रहा है वह अभी दिखाई नहीं दे रहा. सब नशे में हैं और आधुनिकता के नग्‍न नृत्‍य में मग्‍न हैं. जब तक 'शीला की जवानी' और 'मुन्‍नी बदनाम हुई' और 'लौंडिया पटाएंगे मिस्‍ड कॉल से' जैसे गीत बनेंगे और समाज उन्‍हें गुनगुनाएगा, शादी बयाह में बजाएगा तब तक हम औरत के प्रति सम्‍मान का वातावरण सुनिश्चित नहीं कर सकते. पूरी बेहयाई से स्‍त्री को महज एक प्रोडक्‍ट बना कर रख दिया है हमारी फिल्‍मों, टीवी और विज्ञापन की दुनिया ने. और हम नशे में हैं और इस नशे में ये भूल रहे हैं कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए जो प्रतिमान स्‍थापित कर रहे हैं वह उस पूरी पीढ़ी को बर्बाद कर सकते हैं. हमारी ये जरूरत से ज्‍यादा ‘आजाद ख्‍याल’ गुमराह जीवन शैली ही सामाजिक समस्‍याओं की जड़ बन रही है. अगर नैतिक और चारित्रिक पतन जैसी किसी चीज का अस्तित्‍व है तो वह इसी समय घटित हो रही है.

मुझे मालूम है कि सनी का ये शो नहीं रूकेगा, और ये भी संभव है कि आने वाले दिनों में इस पोर्न स्‍टार सहित और कई पोर्न स्‍टार्स के शो भारत में होंगे, ये भी हो सकता है कि जल्‍द ही भारत में वैध रूप से पोर्न फिल्‍में बननी शुरू हो जाएं, ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि गरीबी से मजबूर होकर हमारे देश की बेटियां इस पेशे में आने लगें, एक दिन ऐसा भी आ सकता है भारत की पोर्न फिल्‍मों के बाजार का टर्न ओवर विश्‍वभर में सबसे ज्‍यादा हो जाए, तब भी कुछ लोग उसे आर्थिक प्रगति ही कहेंगे....सब यूं ही चलता रहा तो सब कुछ संभव है. अब देश को तय करना है कि वह कैसा भविष्‍य चाहता है और फिलहाल दिल्‍ली को तय करना है कि क्‍या वह दामिनी की मृत्‍यु के शोक के बीच नये साल का स्‍वागत सनी लिओन के साथ करेगी?

(ये लेखक के निजी विचार हैं इनसे सभी का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) 

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

आक्रोश और समाधान के बीच रायसीना का युवा आंदोलन

शहर की फिजां में जब दरिंदे खुले आम घूम रहे हों और कानून और व्‍यवस्‍था के इंतजामात नाकाफी साबित होने से पानी सिर के ऊपर से गुजर रहा हो तो क्‍या कोई खामोशी से घर के भीतर बैठा रह सकता है. कॉमन मैन को देश में हमेशा फॉर ग्रांटेड ही लिया जाता रहा है. पर सिस्‍टम अक्‍सर भूल जाता है कि ‘दे आर रेजिलिएंट बाय फोर्स नॉट बाय च्‍वाइस’. खामोशी को मजबूरी समझने की समझ ने ही हमें आज इस मुकाम पर ला दिया है. पर अब इस देश की युवा शक्ति को ये हालत स्‍वीकार नहीं है. तथाकथित ‘बडों’ और ‘मैच्‍योर’ लोगों द्वारा युवाओं को गैर जिम्‍मेदार कह कर बार बार खारिज किया जाता रहा. पर आज इन्‍हीं गैर जिम्‍मेदार युवाओं की थोड़ी सी हिल गई तो न्‍याय के लिए अपनी बुलंद आवाज से जर्रे जर्रे को हिला कर रख दिया. आज 20 हजार लड़के-लड़कियां राजपथ पर न्‍याय की मांग को लेकर इस कसम के साथ उतरे कि जब तक उन्‍हें उनका हक नहीं मिल जाता वे जमीन नहीं छोडेंगे. 



मैंने खुद सुबह 09.00 बजे से अब तक के घटनाक्रम को अपनी आंखों से देखा और जिया....आज जो रायसीना की पहाडियों पर हुआ वो आज तक नहीं हुआ था. गुस्‍से का गर्दोगुबार उठा वो बस उठता ही चला गया, रायसीना की पहाडी पर ठीक हुक्‍मरानों के दरो-दीवार पर न्‍याय की आवाज बुलंद कर रही युवा शक्ति पर पानी की तोप के प्रहार, आंसू गैस के गोले, हवाई फायरिंग और लाठी चार्ज किया गया. दर्जनों लड़के लडकियां घायल हुए. शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे बच्‍चों, लडकियों और युवाओं पर पुलिस का हर जुल्‍म उनकी अदम्‍य शक्ति के आगे बौना साबित रहा. प्रशासन की बौखलाहट साफ देखी जा सकती थी और शायद सरकार भी इसे कोई राजनीतिक आंदोलन मानने की भूल कर रही थी. विजय चौक गुस्‍से में उबल रहा था और कोई सामने आकर इन आंदोलनरत युवाओं को एक बेहतर कल का वायदा करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था. दमनचक्र चलता रहा लोग घायल होते रहे पर डटे रहे, लोग आते रहे और हर तरफ सिर्फ न्‍याय मांगते सिर बढ़ते रहे. रायसीना की पहाडियां जंग के मैदान में तब्‍दील होती गईं. बलात्‍कारियों के खिलाफ सख्‍़त से सख्‍़त कानून, फास्‍ट ट्रैक कोर्ट में स्‍पीडी ट्रायल, दिल्ली रेप केस के अपराधियों को फांसी की सजा और एक चुस्‍त प्रशासन की मांग लेकर सुबह शुरू हुई मुहिम इस वक्‍त भी इंडिया गेट पर जारी है. सवाल बहुत हैं पर जबाव कहीं नहीं है. ;;;; ;;;  



      सब हैरान हैं कि ये सब हुआ कैसे ?  दरअसल कुछ युवाओं ने चंद रोज पहले फेसबुक पर तय किया कि 21 तारीख को सुबह 09 बजे इंडिया गेट पर एक प्रोटेस्‍ट गैदरिंग होगी...... और देखते ही देखते हजारों लोगों ने खुद आने और अपने सगे संबंधियों और मित्रों को साथ लाने का वायदा किया और आयोजकों की उम्‍मीद से कहीं ज्‍यादा संख्‍या और उत्‍साह से आए. युवाओं द्वारा प्रयोग किए गए नारे और हाथों में पकडे स्‍लोगनों से उनके दिल का दर्द साफ समझा जा सकता था. यहां आने वालों की औसम उम्र 20 से 22 वर्ष रही होगी. हां उन्‍हें लीड़ थोडी बडी उम्र के साथी ही कर रहे थे. 

आज का यूथ प्रोटैस्‍ट शायद आर्गेनाइज्‍ड नहीं था. इसीलिए थोड़ा बेतरतीब भी था.....पर कुछ चीजें बेतरतीब ही सही होती हैं. तरतीब लगाने वाले लोग कुछ खास बदल नहीं पाते. ये किसी राजनीतिक दल या एक एनजीओ द्वारा संचालित नहीं था. इसे कोई एक व्‍यक्ति भी लीड़ नहीं कर रहा था. बस एक जज्‍़बा उन्‍हें आपस में बांधे हुए था. ये नया दौर है...जहां तकनीक ने आज विजय चौक को तहरीर चौक में तब्‍दील कर दिया है. भर सर्दी में दिल्‍ली के कौने कौने से 8.30 बजे से युवाओं की टोलियां कोई मौज मस्‍ती करने सड़क पर नहीं उतरी थी. पानी के गोलों और आंसू गैस के गोलों के सामने भी एक दूसरे का हाथ थामे डटे रहने वाले युवा शायद संकेत दे रहे हैं कि उनके धैर्य की परीक्षा न ली जाए. सब चलता है.....अब नहीं चलेगा. हजारों युवा सड़क पर जब दमन झेल रहे थे तब देश के बुद्धिजीवी लाइव टेलीकास्‍ट देख रहे थे. और हां शायद अभी भी कुछ लोग इसे दूध का उफान समझ कर जल्‍द बैठ जाने की गलती कर रहे थे.

प्रदर्शन के दौरान बढ़ते दबाव को देखते हुए भीड़ को तितर-बितर करने के लिए अचानक ठंडे पानी की तेज धार से प्रहार शुरू हो गए....भर ठंड में गीले कपडों में युवाओं के धैर्य की परीक्षा ली जाती रही. फिर शुरू हुआ लाठी चार्ज, स्‍कूली बच्‍चों और लड़कियों पर भी जमकर लाठियां भांजी गईं और फिर अश्रु गैस के गोलों की फायरिंग....हर तरफ धुंआ और आंखों में जलन. अचानक एक गोला मेरे नजदीक खडी एक लड़की के पैर पर आकर लगा....लड़की गिरती है और पैर से खून की धार निकल पड़ी. कुछ युवाओं ने उसे उठा कर एम्‍बुलेंस में पहुंचाया... तभी दो तीन और धमाके हुए.... भगदड़ हुई और देखा कि इस फायरिंग में कई लोग जख्‍मी हो चुके हैं. भीड़ का रेला कुछ गज पीछे हटा....कुछ लोग और घायल हुए.... थोड़ी देर बाद जब पानी की धार बंद हुई....युवाओं की ये फौज फिर से समरभूमि के फ्रंट पर मौजूद थी. सारा दिन ये गुरिल्‍ला युद्ध विजय चौक पर जारी रहा. पर आग दिल में लगी थी सो पीछे हटना गवांरा नहीं था...सो हक की जिद जारी रही. एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन को मासूमों पर हमला कर प्रशासन ने स्‍वयं इसे आक्रोश की पराकाष्‍ठा तक पहुंचा दिया. जहां जुबान से बात हो सकती थी वहां लाठी चल रही थी. खैर शाम तक कुछ कुर्सियां हिलीं और प्रेस वार्तांए हुईं ...कुछ को सस्‍पेंड किया गया, तमाम नए वायदे किए गए. एक बात समझ नहीं आती ....जब तक बवाल ने मचे हम कुछ क्‍यों नहीं करते?

टीआरपी की भूख मीडिया को भीड़ के पीछे चलने और सनसनी को हवा देने को मजबूर कर देती है. आज भी वही हुआ सुबह 10 बजे तक जब सब कुछ शांतिपूर्ण था कुछ बेनाम से टीवी चैनल और कुछ प्रेस फोटोग्राफर मैदान में थे....और युवाओं के गगनभेदी नारे भी नक्‍कार खाने में तूती की तरह बोल रहे थे. शांतिपूर्ण प्रदर्शन की कवरेज पर कहां टीआरपी मिलती है साहब. पर दस बजते-बजते रायसीना की तस्‍वीर बदलने लगी. भर सर्दी में भी माहौल में तपिश बढ़ रही थी....पुलिस अटैक की तैयारी कर चुकी थी. हम देख सकते थे एक पुलिस बस के ऊपर मचान बनाए कुछ मीडिया कर्मी लगातार फोन कर अपने साथियों को बुलाने में जुटे थे. बस फिर क्‍या था.....कुछ मिनटों में ही तमाम ओबी वैन ने पड़ाव डाल लिया. और लाइव रिपोर्टिंग शुरू. कुछ ने तो इसे अपनी मुहिम बताने का अभियान भी चलाया हुआ है. अगर थोडी भी गैरत मीडिया में बची हो तो ये राजनीति बंद कर दें.

युवा जब भी कुछ नया करते हैं तो उससे उपजी उम्‍मीदों को खामख्‍याली ही समझा जाता है....इस बार भी ऐसा हो सकता है. पर अब वक्‍त बदल रहा है.....इस देश को अब युवा शक्ति ही चलाएगी. चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र हो या सामाजिक हो....युवा अब हर मोर्चे पर मुखर हो रहा है. जितना इसे नज़रअंदाज किया जाएगा ये उतना ही प्रखर होगा.....और सबसे अच्‍छी बात ये है कि युवा किसी मुद्दे पर जुटने से पहले जात धर्म और बिरादरी की पड़़ताल नहीं करता है उसका धर्म उसका युवा होना ही है.  ये आंदोलन पूरी तरह युवा शक्ति का आंदोलन है. आज के प्रदर्शन में कोई राजनीतिक दल दूर दूर तक नज़र नहीं आया. लेकिन एक प्रश्‍न आज का आंदालन पीछे छोड़ गया है इस आंदोलन में मैच्‍योर और उम्रदराज लोग नज़र नहीं आ रहे हैं. क्‍या ये लड़ाई केवल युवाओं की है ? युवा शक्ति दरअसल कितनी जिम्‍मेदार और संवेदनशील है ये कोई भी तभी जान सकता है जब वह उनके साथ अश्रु गैस के गोले झेले, पानी की तोप के आगे डटे या लाठी खाए. सेमिनार में भाषण देना या घरों के अंदर उपदेश देना बहुत आसान है.

ये आंदोलन एक शुरूआत भर है...यकीनन ये आधी आबादी का पूरा इंकलाब था. पर हां, इसकी दिशा को लेकर हमें सचेत रहना होगा. दिशा भटकते ही कोई भी आंदोलन अपना महत्‍व खो देता है. किसी साफ नेतृत्‍व के अभाव में यह संकट इस आंदोलन पर भी हावी है. इस आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभा रहे युवाओं को अब जल्‍द से जल्‍द आपस में एक व्‍यवस्था बनानी होगी जिसमें वे मिलकर तय कर सकें कि कब क्‍या और कितना करना है ताकि ये आंदोलन अपनी ऊर्जा न खोए और न बिखरे...क्‍योंकि दिल्‍ली से शुरू हुए इस आंदोलन की गूंज अभी देश के कौने-कौने तक पहुंचनी है. हजारों बलात्‍कार पीडिताएं अभी न्‍याय के इंतजार में हैं.

इस आंदोलन का एक उद्देश्‍य जनता को जागरूक करना भी है. जो संवेदनाएं मर चुकी हैं या सो चुकी हैं उन्‍हें जगाना भी है. इंसानियत हर दिल में अभी मरी नहीं है. पर जिनके दिल में मर गई है उनके लिए मातम मनाने का वक्‍त नहीं है अब हमारे पास. हमें अलख जगानी होगी....जो दूसरे का दर्द समझते हैं वे हाथ मिलाएं और आगे बढ़ें. जिस समस्‍या से हम जूझ रहे हैं वह प्रशासनिक बहुत बाद में पहले मानसिक और फिर सामाजिक भी है. सरकार बहुत बाद में आती है. हां, सड़क पर चलता हर आदमी पुलिस है यदि वह किसी लड़की के साथ ज्‍यादती होते हुए देख कर विरोध करता है,  उसकी सहायता करता है. और अगर वह ऐसा नहीं करता है तो वह भी अपराध में अपराधी का साथ ही दे रहा है. हर व्‍यक्ति को खुद की जिम्‍मेदारी भी समझनी होगी.

और हां, मैं समझता हूं कि आज जो हुआ उससे व्‍यवस्‍था ने सबक लिया होगा. शायद आज युवा दुष्यंत जी के शब्‍दों में यही कहना चाहते हैं कि

‘महज़ हंगामा खड़ा करना मेरा महसद नहीं,
      मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.....’ 

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

भयभीनी श्रृद्धांजली !!!

एक भयभीत नागरिक की भय भरी श्रृद्धांजली उसके लिए 
जिसके मरने के बाद भी लोग उससे डरते हैं. 


डरो ! थर थर कांपो, 
कि वो चला तो गया है,
पर छोड़ गया है दबंगई और गुंडई की विरासत !


डर ही जन्मेगा तुम्हारे भीतर श्रृद्धा के फूल,
डर ही सनातन सत्य‍ है मुंबा देवी की नगरी का, 
क्या फर्क पड़ता है कि कब, किससे, कितना डरना है !

सवाल मत करो, 
जिंदा हो यही क्या कम है?
अपने जीवित होने का उत्सव मनाओ, 
देखो वो बड़े पर्दे वाले, पर्दों के पीछे वाले,
हाथ जिनके लालमलाल, और कर्मों से काले,
सब श्रृद्धा से जुड़े हैं और उनकी आंखे नम हैं !

अरे देखो वो भीड़ का रेला, 
कभी न देखा सुना, 
ये गीत है उसकी महानता का,
तुम भी गाओ, आओ भीड़ में शामिल हो जाओ,
तुम्हें अभयदान नहीं चाहिए क्या?

शनिवार, 3 नवंबर 2012

समंदर से पहली मुलाकात

मैंने कभी समंदर नहीं देखा था. बचपन से समंदर को महसूस करने की तलब थी जो आज देश के पूर्वी तट पर जगन्‍नाथ पुरी में जाकर पूरी हुई. समंदर से अपने प्रथम मिलन की अभिलाषा में मैं रात भर ठीक से सो भी न सका. समंदर पर खिलते सूर्योदय को देखने से न रह जाऊं...इस डर से रात में दो बार जाग कर घडी देख चुका था. खैर सुबह हुई.....और यहां पुरी में शायद कुछ ज्‍यादा जल्‍दी ही हो जाती है. मैं होटल सूर्या के अपने कमरे में बैड पर था और कुछेक फर्लांग दूर चिंघाड रहे समंदर को सुन सकता था. जीवन में पहली बार पहाड़, नदी, झरने या समंदर को देखना शायद जीवन के कुछ सबसे खास अनुभवों में शामिल हो जाता है. कल्‍पना में किसी चीज को देखना और फिर उसे आंखों से देखना...उसे छूना, महसूस करना...अंतर तो है. यहां मैं कुल तीन दिन ठहरने वाला हूं सो हर नए अनुभव को ठीक से जीने का मौका शायद एक से ज्‍यादा बार नहीं मिलेगा....ये बात बार बार हर चीज के प्रति अतिरिक्‍त रूप से सतर्क बना रही है.


खैर, सुबह 5.05 पर वो पल भी आया जिसका बरसों से इंतजार था. समंदर और मैं एक दूसरे के सामने थे. समुद्र तट पर ना आदमी न आदमी की जात....दूर तक सुनसान... हल्‍की नीली चांदनी को सूर्योदय की पहली किरणें चुनौती दे रही थीं....और हवा में मौजूद हल्‍की मीठी सी ठंडक से हाथों के रोएं उठ आए थे. धीरे धीरे बढ़ती सूरज की रौशनी से समंदर का पानी अब लाल हो चला था...और दूर जहां समंदर और आसमान शायद मिल रहे थे कुछ मछुआरों की नावें नज़र आने लगी थी. एक अजीब सा सन्‍नाटा और समुद्र की गर्जना मानो आपस में गुथ्‍थमगुथ्‍था होकर तीसरे आयाम को रच रहे हों. लहरें बार बार किनारे तक आती और लौट जाती. इससे पहले की यहां चहल पहल हो मैं समुद्र में घुल जाना चाहता था. अब मैं किनारे से कुछ कदम आगे पानी के बीचों बीच था...एक लाइफगार्ड अब तक यहां पहुंच चुका था. उसने पचास रू में आधे घंटे के लिए मेरी सुरक्षा की जिम्‍मेदारी अपने कंधों पर ले ली और पानी का आनंद लेने के कुछ टिप्‍स भी देता चला. बस फिर क्‍या था. मैं और समंदर बच्‍चों की तरह खेल रहे थे. वो हर लहर के साथ मुझे थोड़ा ऊपर की ओर उछाल देता और मेरे पैरों के नीचे से ढेर सारा पानी निकल जाने से लगता कि मैं तैर रहा हूं. और कभी-कभी पीछे से अचानक आकर पानी की लहर से धप्‍पा बोल देता. ये समंदर का उसकी गोद में खेलने वाले के साथ दोस्‍ती करने का अपना अंदाज था. तभी लाइफ गार्ड ने एक ट्यब मुझे पहना दी जिससे अब मैं कुछ और अंदर तक जाकर तैर सकता था. अब जमीन मेरे पैरों से काफी नीचे थी...पर मन में कोई डर नहीं. मैंने ऊपर की ओर उचक कर देखा तो सूरज ने आसमान पर अपना अधिकार जमा लिया था. मैंने चारों ओर देखा....और समंदर की विशालता पर अपने तिनके भर होने पर मुस्‍कुराया, ख्‍याल आया कि इसके पानी में न जाने कितना इतिहास घुला हुआ है और मानव सभ्‍यता के विकास का न जाने कब से ये ऐसे ही साक्षी रहा है, कहते हैं समंदर कुछ नहीं छोडता.....सब कुछ निगल लेता है, न जाने इसके तले में क्‍या क्‍या पडा हुआ होगा...थोडी देर में विचार शांत हुए तो मैं सिर्फ और सिर्फ पानी की हर लहर को महसूस कर रहा था और आंखें बंद कर न जाने कितनी देर समंदर की लहरों के साथ झूलता रहा........

(मेरी डायरी से पिछले साल आज ही के दिन का संस्‍मरण 3 नवंबर, 2011, जगन्‍नाथ पुरी, उडीसा)

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

हिन्‍दी के पॉपुलर फिक्‍शन की नई शुरूआत है ‘वो चली गई’

फ़र्ज कीजिए आप ट्रेन या बस में अकेले ही कोई लंबी यात्रा पर हैं और वक्‍़त काटने के लिए कुछ पढ़ना चाहते हैं तो अब तक हिन्‍दी के पाठकों के लिए केवल दो विकल्‍प मौजूद थे । या तो आपको हिन्‍दी के प्रख्‍यात साहित्‍यकारों की कालजयी कृतियां पढ़नी पडती थीं या फिर सड़क छाप साहित्‍य को चुनना होता था। कुछ हल्‍का-फुल्‍का और रिफ्रेंशिंग जैसा लगभग नदारद ही था और उधर हिन्‍दी को अपने चेतन भगत का लंबे समय से इंतजार था. पिछले कुछ वर्षों में हिन्‍दी किताबों की दुनिया पर नज़र डालने से साफ हो जाता है कि हिन्‍दी में आज के शहरी युवा वर्ग को केन्‍द्र में रख कर कुछ नया नहीं लिखा गया है. न ही किसी नई प्रेम कथा ने युवाओं को गुदगुदाया है. मानो हिन्‍दी दुनियां में प्रेम का रस ही सूख गया हो. पर शायद हिन्‍दी पाठकों का यह इंतजार अब ख़त्‍म होने जा रहा है. हाल ही में आया विनीत बंसल का हिन्‍दी उपन्‍यास ‘वो चली गई’ इन दिनों चर्चा में है और हिन्‍दी के युवा पाठकों द्वारा खूब सराहा जा रहा है. 
विनीत पेशे से बैंकर हैं और इन दिनों दिल्‍ली में ही भारतीय स्‍टेट बैंक में कार्यरत हैं. दरअसल विनीत की हालिया किताब ‘वो चली गई’ उनके पहले अंग्रेजी उपन्‍यास ‘आई एम हर्टलैस’ का हिन्‍दी संस्‍करण है. परंतु उपन्‍यास का अनुवाद इतनी खूबसूरती से किया गया है कि लगता है कि हम मूल हिन्‍दी रचना पढ़ रहे हैं. इसकी वजह बताते हुए विनीत कहते हैं कि ‘अनुवाद कार्य के दौरान मैंने यह ध्‍यान रखा कि कहानी को हिन्‍दी भाषा में उसी सरलता के साथ रूपांतरित किया जाए जिस अंदाज में उसे अंग्रेजी में लिखा गया था. इसीलिए अनुवाद कार्य भी प्रमुखता से मैंने स्‍वयं किया है’. शायद यही वजह है कि ‘वो चली गई’ को पढ़ते हुए हमें एक पल के लिए भी नहीं लगता कि हम कोई अनुदित पुस्‍तक पढ़ रहे हैं बल्कि यह पूरी तरह मौलिक रचना जान पड़ती है.
‘वो चली गई’ कहानी है कालेज जाने वाले युवाओं की बेइंतहा मौहब्‍बत, एक कैंपस/होस्‍टल की अहमकाना हरकतों, अपने प्‍यार को हासिल करने की जद्दोजहद, ठुकराए जाने के दर्द, फिर सच्‍चे प्‍यार को न पहचान पाने की त्रासदी और अपराध बोध में तिल-तिल कर मरते उपन्‍यास के नायक विरेन की । एक विश्‍वविद्यालय को पृष्‍ठभूमि में रखकर लिखे गए इस उपन्‍यास में वह सब कुछ है जो आज के कॉलेज/यूनिवर्सिटी जाने वाले एक आम युवा की जिंदगी में घटता है. विनीत ने अपने उपन्‍यास के हर पृष्‍ठ पर कॉलेज की इसी अल्‍हड़ और बेफिक्र जिंदगी को जिया है. कहानी के नायक विरेन ने प्‍यार किया और दीवानगी की हद तक प्‍यार किया, फिर दिल का टूटना, नाकाम मौहब्‍बत में बदले की आग, वहशीपन और फिर बहुत कुछ खो देने के बाद सच्‍चे प्‍यार की पहचान और उसे पाने की तड़प में जलता विरेन. कहानी ज्‍यों-ज्‍यों आगे बढ़ती है हमें अपनी गिरफ्त में लेती चलती है. विनीत के इस उपन्‍यास की खास बात यह है कि उपन्‍यास के शुरूआती हिस्‍से में कॉलेज/ यूनीवर्सिटी में किताबों के बीच पनपने वाले इस प्‍यार के अहसास को असलियत के काफी नजदीक तक जाकर कैद करने की कोशिश की गई है. किताबों और परीक्षाओं के दबाव के बीच भी प्रेम अपनी जगह बना ही लेता है. प्रेम की मासूमियत और रूमानियत पूरे उपन्‍यास में तारी है जो उपन्‍यास के कथानक के साथ हर पल रंग बदलती है। क्‍या यूनिवर्सिटी कैंपस को पृष्‍ठभूमि में जानबूझ कर रखा गया है? इस पर विनीत कहते हैं कि ‘यह सब कुछ प्‍लानिंग करके नहीं किया गया है. बल्कि उपन्‍यास की कहानी सच्‍ची घटना पर आधारित है इसलिए इसे हूबहू कागज पर उतारने की कोशिश की गई है और कैंपस का पृष्‍ठभूमि में आना पूरी तरह स्‍वाभाविक है’.

उपन्‍यास में रूमानी पलों को बहुत संजीदगी से लिखा गया है. कहानी में पात्र प्रेम के बंधन में बंधे होकर इसके सरूर को पूरी तरह महसूस करते हैं. ‘जब प्यार की ख़ुमारी चढती है तो हर चीज़ प्यारी लगने लगती है। चलना-खाना-सोना हर वक्त एक अजीब सा बुखार, एक कभी ना उतरने वाला नशा दिलो-दिमाग को अपने आगोश मे लिए रहता है’. कहानी के युवा पात्रों के माध्‍यम से विनीत ने एक कैंपस के मिजाज और माहौल को भी बड़ी खूबसूरती से उकेरा है. कैम्‍पस का जिक्र इस तरह किया गया है कि वह हर पाठक को अपना ही कॉलेज/यूनीवर्सिटी का कैम्‍पस लगता है. ‘वापसी मे हम यूनिवर्सिटी कैफे पर रूके, हमने हॉस्टल मे सुन रखा था कि पूरे कैम्पस में प्रेमी जोड़ों के मिलने के लिए यह सबसे अच्छी जगह है तो सोचा क्यों ना हम भी इस प्रेमालय के दर्शन कर लें। वहां बैठे-बैठे मैं कल्पना की उड़ान भरने लगा कि किसी दिन मैं भी यूनिवर्सिटी की सबसे हसीन लड़की के साथ यहां बैठूंगा। ख़ैर, वहां कि बेस्वाद कॉफी (जिसे वहां बैठने वाले पीते कम ही हैं.. सिर्फ ऑर्डर देते हैं...) पीने के बाद हम हॉस्टल वापस आ गए’.
‘वो चली गई’ की कथा की बुनावट कुछ इस तरह की है कि हर पात्र हमें बहुत जाना-पहचाना और अपना सा लगता है और कई जगह महसूस होता है कि अरे यह तो मेरी अपनी कहानी है. दरअसल जिंदगी के किसी न किसी मोड़ पर हम सब वीरेन की तरह थे या फिर थोड़ा-थोड़ा वीरेन हम सबके भीतर मौजूद है. बकौल विनीत कहानी का नायक वीरेन एकदम नैचुरल है और असल जिंदगी से उठाया हुआ पात्र है...वह गलतियां करता है और बार-बार ग‍लतियां करता है. कहानी के हालात नायक विरेन को एक एंटी-हीरो में बदलने लगते हैंफिर भी हमें उससे नफरत नहीं होती क्‍योंकि कहीं न कहीं वीरेन के बर्ताव और आदतों के पैटर्न का कारण है.  
यह सीधी सपाट सी कहानी शब्‍दों की पगडंडी पर अपनी अल्‍हड़ चाल से लय के साथ चलती रहती है. हां, कुछ किस्‍सों और पात्रों के बिना भी काम चलाया जा सकता था और कुछ दृश्‍यों को संक्षिप्‍त किया जा सकता था. परंतु फिर भी वे बोझिल नहीं होते और पाठक के ऊब का शिकार होने से बहुत पहले ही विनीत अचानक से कहानी में सरप्राइज एलीमेंट लेकर सामने आते हैं. उनके पहले अंग्रेजी उपन्‍यास की सफलता के बारे में पूछने पर विनीत बताते हैं कि ‘आई एम हर्टलैस’ को पाठकों का भरपूर प्‍यार मिला है और कुछ ही महीनों में इसकी 30,000 से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं और नेशनल बैस्‍ट सैलर घोषित हो चुकी है. पाठकों, खासकर युवाओं से बहुत उत्‍साहवर्धक प्रतिक्रियाएं मिली हैं और मुझे उम्‍मीद है कि हिन्‍दी संस्‍करण को और भी अधिक स्‍नेह प्राप्‍त होगा’
उपन्‍यास का अंत कुछ ऐसा है जिसकी पाठक शायद कल्‍पना भी नहीं करेगा. उपन्‍यास के शीर्षक से ही जारी है कि कहानी का अंत सुखांत नहीं है. इस पर बात करते हुए विनीत कहते हैं कि कुछ प्रेमकथाएं फूलों की महक के साथ खत्‍म होती पर अधिकांश अधूरी रहती हैं। अब हर प्रेमकथा का अंत सुखांत हो ये जरूरी तो नहीं...हमारी जिंदगी में भी कब हर चीज हैप्‍पी नोट पर खत्‍म होती है.

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि विनीत का यह उपन्‍यास हिन्‍दी पुस्‍तकों की दुनियां में नई संभावनाओं के द्वार खोलने जा रहा है और शायद हिन्‍दी को अपने चेतन भगत की अब और अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी होगी. 

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

वैलकम बैक डियर फ्रैंड !!!




आज तो गज़ब हो गया. मेरा दोस्‍त, मेरा अपना चाय का कप जो आफिस में दो दिन पहले खो गया था......आज वापस मिल गया. कसम से ऐसा लग रहा है कि कोई बिछड़ा हुआ बरसों बाद मिल गया हो. पिछले कुछ रोज में अपने चाय के कप से मेरी गहरी दोस्‍ती हो गई थी . दरअसल कप एक अजीज दोस्‍त ने सिकिम्‍म या दार्जिलिंग से लौटकर उपहार के रूप में दिया था. सो कप भी अजीज हो गया. यूं तो ये जरूर कॉफी या ऐसी ही किसी खास चीज को पीने के लिए बना होगा. पर ये मेरा सुबह 11 बजे के फर्स्‍ट आफिशियल टी ब्रेक का कई महीनों से संगी है. शायद इसीलिए सरकारी कप में चाय अब बेस्‍वाद लगने लगी थी. खैर, .....दो दिन पहले बेख्‍याली में किसी दोस्‍त से गुफ्तगू के दौरान मैं इसे अपने कमरे से बाहर कहीं टिका कर भूल गया और जब कप का ख्‍याल आया तो बहुत देर हो चुकी थी. कप गायब था. अब कमबख्‍त चाय पीने में कोई स्‍वाद नहीं आ रहा था. तभी चपरासी ने बताया कि साहब आप जैसा कप तो मैंने आज इसी गलियारे में लाल सी शर्ट पहने एक लड़के के हाथ में देखा था. मुझे लगा उसके पास भी आप जैसा ही कप होगा.

 बस फिर क्‍या था.....लाल शर्ट वाले लड़के की खोज शुरू हुई और कमरे का दरवाजा खुला छोड़ दिया और निगाहें गलियारे से गुजरने वाले हर लाल शर्ट वाले आदमी को खोज रही थीं. कसम से किसी की शर्ट जरा भी लाल नज़र आती तो वो चोर सा नज़र आता. मैं हर बार चपरासी को पूछता कि 'देखना कहीं ये तो नहीं था'. कई बार शर्म भी आ रही थी लोग क्‍या सोचेंगे ....एक टुच्‍चे से कप पर इतनी जान दे रखी है. पर सच में मन तो उसी मैं अटका था. फिर चपरासी को ही हिम्‍मत करके कहा कि जरा बाहर के एक दो चक्‍कर लगा कर उस लाल शर्ट वाले लड़के को ढूंढो तो सही. चपरासी के कमरे से बाहर जाते ही मैं अपनी सीट पर उस कप की खूबसूरत बनावट और लाल-पीले रंगों के बीच उस बडे से सांप को याद करने लगा जो मुझे सरकारी तंत्र में बैठे ऐसे सांपों की याद दिलाता था. मैंने न जाने कितने लोगों की शक्‍लें उस सांप में देखी थी. कभी डर सा भी लगता था कि चाय के कप पर सांप वाप टाइप की चीजें नहीं होनी चाहिएं....पर फिर ख्‍याल आया कि बनाने वाले ने सोच समझ कर ही बनाया होगा.

हां, इस कप में चाय पीकर कभी-कभी लगता था कि मानो चाय पीते ही व्‍यवस्‍था में घुस चके ऐसे सांपो से लड़ने के लिए कोई ताकत शरीर में आ जाएगी. खैर मैं अभी कप की याद में डूबा ही था कि आधे घंटे बाद चपरासी ने आकर मेरा कप मेरी नज़रों के सामने टिका दिया. चोर मिल गया था, शायद .....चोर कहना ठीक न होगा, ऐेसे कप को अकेला देखकर भला किसका ईमान नहीं डगमगाएगा ? सो ले गया होगा उठा कर. खैर मेरी आंखों का नूर...मेरा जिगरी वापस आ गया था. दिल गार्डन गार्डन था. तुरंत चाय आर्डर की और आने पर हर एक चुस्‍की के साथ कहा.......वैलकम बैक डियर फ्रैंड !!!!!