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गुरुवार, 5 अगस्त 2010

जीवन और मृत्‍यु के मध्‍य


जीवन और मृत्‍यु के मध्‍य

कहते हैं कि सृष्टि में कुछ भी अकारण नहीं है| हर पेड़ पौधे, जीव-जन्तु यहां तक की निर्जीव चीजों का भी अपना महत्व है; वे जहां है, वहां उनका होना आवश्यक था| परन्तु इस सृष्टि की तमाम रचनाओं के मध्य केवल मनुष्‍य ही एक ऐसा प्राणी है जिसे ईश्वर ने यह क्षमता प्रदान की है कि वह अपने होने का कारण जान सकता है| यह शाश्‍वत प्रश्न कि हमारा जन्म क्यों हुआ? मानव के हृदय को सदियों से उद्वेलित करता रहा है| कुछ कारण जान सके कुछ नहीं| ईश्वर के द्वारा रचा हुआ संसार वास्तव में इतना मायावी है कि साधारण मनुष्‍य बस इसी में डूब कर रह जाता है| और सबसे आश्चर्य की बात यह है कि वह यह भूल जाता है कि इस दुनियां उसका बसेरा एक निश्चित समय तक ही है| और अपने निर्धारित समय पर उसे यह संसार छोड़ना होगा| इस प्रकार देखा जाए तो मृत्यु जीवन का सबसे बड़ा सत्य है| जिससे हम सभी जानकर भी अनजान बने रहते हैं|
महापुरूषों ने अपने तप और साधना के बल से अर्जित ज्ञान के आधार पर बताया है कि यह संसार हमारी अंतिम मंजि़ल नहीं है बल्कि आत्मा के परमात्मा से अंतिम मिलन के रास्ते में एक पड़ाव मात्र् है; और इस पड़ाव में उसे अगली यात्र की तैयारी करनी है| यूं तो अलग अलग धर्मों ने इसी सत्य को अपने अपने अंदाज में कथा-कहानियों का सहारा लेकर समझाने का प्रयास किया है| मगर बिरले ही इस सत्य को जान पाते हैं और उनमें से भी कुछ ही इस सत्य को अपने जीवन में उतार पाते हैं|
मनुष्‍य के क्रियाकलापों को यदि गौर से देखा जाए तो कहीं से भी प्रतीत नहीं होगा कि कोई भी व्यक्ति कभी यह चराचर जगत छोड़ कर जाएगा| यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि हर दिन अगले कई वर्षों की योजनाएं बनाता मनुष्‍य तो यह भी नहीं जानता कि अगले ही क्षण में वह जीवित भी रहेगा या नहीं| कब वह काल का ग्रास बन जाएगा कोई नहीं जानता| बरसों के लिए बनाई गई योजनाएं, लोगों से लने वाले बदले, दिया गया कर्ज, लिया गया उधार, माता-पिता, बाल-बच्चे, प्रेम-घृणा सब पल भर में यहीं छूट जाएगा| जैसे कभी यह हमारा था ही नहीं| किसी प्रियजन की मृत्यु होने पर मृत्यु और जीवन का यह सत्य पल भर के लिए हमारे सामने स्पष्‍ट होता है; फिर कुछ दिन शोक के और फिर जिंदगी पुन: उसी ढर्रे पर चल पडती है| हम फिर व्यस्त हो जाते हैं अगले कई वर्षों की योजनाएं बनाने, किसी दोस्त को छलने, किसी शत्रु से बदला लेने, चोरी से अपना घर भरने, दूसरों को नीचा दिखाने, खुद को श्रेष्‍ठ साबित करने के अनवरत युद्व में| यह अंतहीन युद्व तब तक चलता रहता है जब तक मृत्यु स्वयं आकर इस पर पूर्ण विराम नहीं लगा देती| असल में गलत कार्य करते हुए हम कर्म के सिद्वांत को भूल जाते हैं कि
'कर्म का फल हमें ही भोगना होगा;
फिर वह हमें आज मिले या कल
या फिर अगले जन्म में....
कर्मफल का यह जटिल विज्ञान संभवतया साधारण मनुष्‍य को समझ आए| इसीलिए विद्वानों ने कर्म को भगवान के साथ जोड़कर समझाने का प्रयत्न किया है| और स्वर्ग और नरक की अवधारणा का जन्म भी संभवतया इसीलिए किया गया ताकि ईश्वर के डर से मनुष्‍य गलत कार्य करे| परन्तु हाय रे मनुष्‍य! इसने तो ईश्वर की सत्ता को भी नहीं माना| अक्सर लोगों को कहते सुना जा सकता है 'भगवान-वगवान कुछ नहीं है; जो है बस यही जीवन है | ना ही कोई नरक है और स्वर्ग | सब कल्पनाएं हैं | इसलिए हम अच्छा करें या बुरा कोई फर्क नहीं पडने वाला। जो ईश्वर को नहीं मानते उनसे तर्क-वितर्क तो वैसे ही व्यर्थ है परन्तु जो मानते हैं ज्यादा आश्चर्य उन्हें देखकर होता है| वे तो उसे भी बहलाने या धोखा देने का प्रयास कर रहे हैं|
'नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को' की कहावत आप सब ने सुनी होगी| बस हम अपने चारों तरफ ऐसी ही बिल्लियों से घिरे हुए हैं| जो दिन भर तो कुकर्मों में व्यस्त हैं, भ्रष्‍टाचार और अपराध के नित नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं और फिर घंटों मंदिर-मस्जि़द और गुरूद्वारों में ईश्वर के सामने पूजा-पाठ का आडंबर करके स्वयं के बडे धर्मात्मा होने का सर्टिफिकेट प्राप्त कर रहे हैं| गंगा स्नान हुआ नहीं कि धुल गए सारे पाप| आजकल तो ईश्वर की पूजा भी हाईटैक हो गई है, चढावा भी ऑनलाइन चढ़ने लगा है| जब प्रसाद भी ऑनलाइन ऑर्डर किया जा सकता है तो मंदिर तक कौन जाए| यहां तक कि अब तो पैसा फैंक कर भगवान के दर्शन भी खरीदे जा सकते हैं| पैसे से ईश्वर को भी प्राप्त किया जा सकता है, यह संभवतया मनुष्‍य के अहं की पराकाष्‍ठा ही है| ईश्वर के बनाए हुए मनुष्‍यों के साथ हम बुरा व्यवहार करें और सोचें कि ईश्वर हमारे पूजा-पाठ से प्रसन्न होंगे; कोरी मूर्खता ही है| ईश्वर ने कब कहा कि मेरी पूजा पाठ का आडंबर रचो? ये सब तो पंडे-पुजारियों द्वारा अपनी स्वार्थ सिद्घि के लिए बनाई गई व्यवस्थाएं हैं| वास्तव में तो नर की सेवा ही नारायण की पूजा है| मगर धन और सत्ता के मद में चूर होकर हम मनुष्‍य को मनुष्‍य समझते ही कहां हैं?
यहां प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि यदि मृत्यु ही परम सत्य है तो यह क्‍या जीवन व्यर्थ है? फिर कर्म करने की क्या आवश्यकता है? क्या यह एक ऐसी जिंदगी जीना नहीं है जिस पर हमारा कोई नियंत्रण ही नहीं है? परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है| मृत्यु एक अटल सत्य है परंतु इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि हम अपना समस्त जीवन इस सत्य के घटित होने के इंतजार में हाथ पर हाथ रख कर व्यतीत कर दें| या फिर मृत्यु के भय से नैराश्य के गर्त में डूबे रहें| वस्तुत: यह जीवन बहुत ही सुंदर है| बशर्ते हम इसके मूल तत्व को अपने कर्मों का आधार बना कर चलें| और यह मूल तत्व प्रेम है, सादगी है| सृष्‍टि की रचना का मूल भी प्रेम में ही स्थित है एवं सृष्‍टि का चलना भी प्रेम पर ही निर्भर है| प्रेम ही परम सत्य है| यदि इस प्रेम तत्व को इस सृष्‍टि से मिटा दिया जाए तो इसका चलना असंभव हो जाएगा| इस प्रकार देखा जाए तो मृत्यु सत्य होकर भी सत्य नहीं है| यह केवल सांकेतिक घटना मात्र् है, जो नियमित रूप से मनुष्‍य को जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास कराती है| जीवन कितना कीमती है यह मृत्यु की अनुपस्थिति में नहीं जाना जा सकता|
परंतु यह विडंबना ही है कि हमारे जीवन में जितना स्थान दूसरों के प्रति घृणा, द्वेष या ईर्ष्‍या लेती है उतना प्रेम, सहृदयता और सद्भावनाएं नहीं| यही कारण है कि जीवन पग-पग पर बोझ सा लगने लगता है| हम अपने आस-पास ही देखें तो कारण समझ जाएगा| सुबह उठ कर रेडियो या टी.वी पर भजन या प्रवचन सुन कर मन हल्का हुआ, जीवन की सच्चाई का आभास हुआ और प्रण किया कि अब आगे सब अच्छा ही करेंगे| पर कुछ ही मिनटों सब साफ| ऑफिस जाते वक्त रास्ते में मंदिर या गुरूद्वारा नज़र आया तो रब फिर याद गया| पर कुछ कदम चलते ही रब को भूल गए| ऑफिस में प्रवेश करते ही आज का विचार पढ़ा तो एक पल के लिए फिर याद आया कि यह जीवन क्षणभंगुर है और हमें सभी के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करना है| पर सीट पर जाकर बैठे नहीं कि ज्ञान की चिडिया फुर्र| और पुन: ईर्ष्‍या, पद के अहंकार, मैं बड़ा - ये छोटा के गिद्घ हमारी चेतना की डाल पर बैठते हैं और दिन भर यही चलता रहता है| घर लौटने पर भी यही क्रम नाते-रिश्तेदारों, पडौसियों के साथ चलता रहता है| पर हम यह सोचने के लिए कभी समय नहीं निकालते कि क्या यह जीवन हमें इसी प्रकार जीने के लिए मिला है?
हर व्यक्ति इस दुनियां में एक उद्देश्य लेकर आया है और एक निश्चित समय तक ही यहां रहेगा| और जन्म और मृत्यु के इसी निश्चित समय के बीच ही उसे अपने जन्म का कारण जानना है| अब जब यह स्पष्‍ट है कि इस दुनियां में हम हमेशां के लिए नहीं आए हैं तो यह हमें ही तय करना होगा कि इस छोटे से सफ़र को हम किस तरह तय करेंगे?
-सौरभ आर्य
(केन्‍द्रीय उत्‍पाद शुल्‍क आयुक्‍तालय की गृह पत्रिका 'महक पंजाब की' के प्रथम अंक में प्रकाशित)