U TURN

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

ओपिनियन पोल अपनी जगह सही, मगर इसे झोल से बचाना जरूरी.

आज ओपिनियन पोल की विश्‍वसनियता और चुनाव आयोग द्वारा इन्‍हें बैन किए जाने की बात पर घमासान मचा है. अभी आयोग सिर्फ राजनीतिक दलों से सुझाव मांग रहा है. मगर हंगामा बरपा है. मुझे दस साल पहले का वो वक्‍़त याद आ रहा है जब यूनिवर्सिटी के दिनों में, मैं खुद एक बड़े चुनावी सर्वेक्षण का हिस्‍सा रहा. दिल्‍ली की एक प्राइवेट सर्वेक्षण और मीडिया एजेंसी ने 2004 के लोक सभा चुनावों के दौरान पूरे हरियाणा में चुनावी सर्वेक्षण के लिए कुरूक्षेत्र विश्‍वविद्यालय से वॉलंटियर्स का एक इंटरव्‍यू के माध्‍यम से चयन किया. लगभग 100 स्‍टूडेंट्स को चुना गया. 10 स्‍टूडेंट्स वाली 10 टीमें तैयार की गईं. जिनमें एक टीम लीडर के साथ 9 और सर्वेक्षक साथ रहने थे. नार्थ हरियाणा के पांच जिलों की कमान संभाल रहे एक अधिकारी के अंतर्गत कुल दस यूनिटों को काम करना था. हर टीम के पास अपना वाहन था, जिला, तहसील, गांव, के हिसाब से पूरे 15 दिन तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक सर्वेक्षण किया जाना था. एक-एक गांव, शहर और तहसील से सैंपल लिए जाने थे....जिसमें हर सर्वेक्षक को पूरे दिन में कुल 18 लोगों से बात कर जनता का मिजा़ज सर्वे में दर्ज करना था. यानि कि 10 लोगों की एक टीम को पूरे दिन में 180 सैंपल तैयार करने थे. हमें कहा गया कि इस सर्वेक्षण के परिणाम समाचार पत्रों में प्रकाशित किए जाएंगे. हर स्‍टूडेंट को इस कार्य के लिए प्रतिदिन 250 रू बतौर पारिश्रमिक मिलना था. हमारे लिए यह सीखने के एक अच्‍छे अवसर के साथ, अपने प्रदेश के गांव, गली-कूचों को करीब से देखने का सुनहरा अवसर था.....हां पॉकेट मनी भी ठीक-ठाक बन जानी थी. 

एक टीम की कमान मुझे सौंपी गई. कई दिन तक सब ठीक चला. मगर दिमाग तो ठनक रहा था कि यार ये कौन सी एजेंसी है जो पूरे हरियाणा में करोड़ों रूपए फूंक कर चुनावी सर्वेक्षण करा रही है. कुछ ही दिनों में अंदाजा हो चला था कि किसी न किसी पॉलिटीकल पार्टी से इस सर्वेक्षण की फंडिंग हो रही है. बस सारा उत्‍साह जाता रहा. सबसे पहले हमने अपने पारिश्रमिक की राशि अंटी में की और फिर काम आगे बढ़ाया, पर अभी भी कहीं न कहीं हमें ये गुमान था कि हम कुछ औरिजनल काम कर रहे हैं. हमारे सर्वेक्षण का कुछ असर होगा. सर्वेक्षण सम्‍पन्‍न हुआ और सैकड़ों गांवों में हजारों लोगों से बात करने के बाद हमारी टीम को साफ हो चला था कि इस बार सरकार किस दल की बनेगी. खैर, सैंपल एजेंसी को सौंप दिए गए.......और हम भूल गए. चंद रोज बाद अखबारों में इसी एजेंसी के हवाले से इस सर्वेक्षण के परिणाम प्रकाशित हुए और जो परिणाम प्रकाशित हुए वे अंग्रेजी की भाषा में लोपसाइडेड थे. मतलब एकदम उलट. यहां तक कि कुरूक्षेत्र सीट से जिस प्रत्‍याशी का नाम सर्वेक्षण के संपन्न होने के दौरान घोषित ही नहीं था उसे भी सर्वेक्षण में बढ़त के साथ लगभग विजयी दर्शाया गया था. मेरे पास सैंपल सर्वे के प्रश्‍नपत्र के कुछ नमूने थे. जो ये साबित कर सकते थे कि सर्वे के परिणामों में फर्जीवाड़ा किया गया है. इसे कुछ प्रोफेसर्स के संज्ञान में लाया गया....उन्‍होंने सलाह दी कि अभी सिर्फ पढ़ाई पर ध्‍यान दो और इस गंदी राजनीति का शिकार बनने से बचो. उन्‍होंने इस सर्वेक्षण के खेल के कई और राज खोले. हम कई दिनों तक खुद को ठगा सा महसूस करते रहे. हां, चुनाव परिणाम ठीक वैसे निकले जैसा हमारी टीम ने सर्वेक्षण के दौरान पाया था. एक तरह से ऐसे सर्वेक्षणों के परिणामों से भरोसा उठ गया मगर सर्वेक्षण पर भरोसा और गहरा हो गया. हमने ये सीख लिया था कि सर्वेक्षण किए कैसे जाते हैं. 

इस सीख का इस्‍तेमाल कुछ ही दिनों बाद हमने अपनी यूनिवर्सिटी में ही कर ड़ाला. द टारगेट सर्वे के नाम से कैंपस में 500 स्‍टूडेंट का सैंपल साइज लेकर कैंपस की समस्‍याओं, वाइस चांसलर की कार्यप्रणाली, होस्‍टलों की हालत और तमाम मुद्दों पर लगभग 40 प्रश्‍नों को केन्‍द्र में रखकर एक सर्वेक्षण कर डाला. इसके असहज करने वाले परिणामों ने वाइस चांसलर साहब को भी असहज कर डाला. एक शाम हमें वाइस चांसलर रेजीडेंस पर चाय के लिए बुलाया गया. हमें विश्‍वास दिलाया गया कि सर्वे के परिणामों पर गंभीरता से विचार कर आवश्‍यक कार्रवाई की जाएगी. तो साहब, कुल मिलाकर आज मचे बवाल पर यही कहना है कि सवेक्षण एक लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था को सशक्‍त ही बनाते हैं, बशर्ते वे पूरी ईमानदारी के साथ किए गए हों. किसी चीज की खामियों की वजह से उसे बैन कर देना समस्‍या का समाधान नहीं है....जरूरत है कि उन खामियों को दूर किया जाए. सर्वेक्षणों का संचालन पारदर्शिता से हो इसके लिए कुछ कायदे कानून जरूरी हैं....नहीं तो भैया लोग अपना अपना सर्वेक्षण करा कर स्‍वयं को विजयी ही घोषित करते रहेंगे !!!

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

बहरूपिया

तुमने क्रांति की बातें की
लोगों ने हाथ उठा कर तुम्‍हारी आवाज बुलंद की,
तुमने न्‍याय की बात की
लोगों ने अपनी जान हथेली पर रख ली,
तुम मांगते गए 
लोग देते गए,
तुम जानते हो लोग अब किसी का साथ नहीं देते,
वे ठगे गए थे बार-बार,
पर बार-बार भरोसा टूटने के बाद भी
कुछ भरोसा हर शख्‍़स के भीतर रह जाता है !

इस बार
तुम मानवता के नाम पर आए
तुम इस बार भी खरे उतरे,
सारे विश्‍वासों, आस्‍थाओं और निष्‍ठाओं से परे
तुमने एक बार फिर उन्‍हें लूटा !!

तुम अब भी छाती तान कर बात करते हो,
क्रांति की, न्‍याय की और मानवता की,
क्‍या खूब तुम बदल देते हो
झूठ को सच में
अन्‍याय को न्‍याय में
निर्लज्‍जता को लज्‍जा में
पत्‍थर दिलों को पिघलाकर
सांचों में ढ़ालना तुमने कहां से सीखा
तुम आदमी हो या बहरूपिए
तुम जो भी हो,
बस इतना जान लो,
तुम्‍हारी समस्‍त कलाओं की भी एक सीमा है !!! 

धरम-करम

ट्रेन स्‍टेशन से छूटते ही चाय, चुरमुरे, चूरण-चटनी, पापड़ बेचने वाले ट्रेन में सवार हो लिए. अब अगले कुछ स्‍टेशनों तक इन्‍हें अपने तिलिस्‍मी झोलों में भरी ये चटर-पटर सवारियों को बेचनी थी और फिर झोला हल्‍का होने पर कोई दूसरी ट्रेन पकड़ कर वापस अपने ठिकाने पर आना था. ये सब बेचने वालों में ज्‍यादातर कम उम्र के लड़के, छोटी बच्चियां या फिर बूढ़े लोग ही रहते हैं. पर वक्‍़त की मजबूरी शायद आज उस औरत को पटरियों पर हर रोज यूं ही दौड़ती इस जिंदगी के बीच खुद की जिंदगी तलाशने पर मजबूर कर ले आयी थी. उसके थैले मे आलू के चिप्‍स, पापड़ और कुछ छुट-मुट सामान था. फीके से लाल रंग की साड़ी पहने ये औरत लोगों के बीच आवाज लगा कर चिप्‍स और पापड़ बेच रही थी. रोजमर्रा की सवारियों से शायद उसका परिचय हो चला था जो उससे कल की चिप्‍सों में थोड़े तेज मसाला होने की शिकायत कर रहे थे और पूछ रहे थे कि वो मुरमुरा नहीं लाई आज ? ये आंखें शर्मदार थीं या कहिए कि खुद इन पटरियों पर दौड़ती मजबूर जिंदगी के हमराह थे....जो उसकी देह पर नहीं सिर्फ सामान पर केन्द्रित थे. पर चार-पांच लोग इस डिब्‍बे में आज शायद नए थे. उनके लिए चलती ट्रेन में चिप्‍स और पापड़ बेचती औरत अजूबा थी....बस फिर क्‍या था. इनका ध्‍यान चिप्‍स पर न होकर उसकी देह पर था. औरत को सामान बेचता देख उन्‍हें न जाने कैसा रोमांच चढ़ा कि आपस में आंखों में बात करके चिप्‍स के लिए आवाज दी....औरत के झोले में क्‍या क्‍या है ? कौन चीज कितने की है ? किसमे मसाला कम है, किसमें ज्‍यादा है? ये मंहगा है ये सस्‍ता है! ये कितने में दोगी, वो कितने में दोगी ! एक जब झोले को टटोलकर सवाल-जवाब कर रहा था तो बाकी की आंखे उसके शरीर का नाप ले रही थीं. एक शोहदा तो छत के हैंडल से लटका हुआ भीड़ का बहाना करता हुआ बार-बार औरत के शरीर से सट कर मुस्‍कुरा रहा था. औरत इस वाहियाती को नज़रअंदाज कर बार-बार पूछ रही थी 'आपको क्‍या लेना है भाईसाहब....आपका जो दिल करे दे दीजिएगा'. इससे पहले कि बोगी के बाकी लोग उनकी इस वाहियाती को भांप कर कुछ करते उस तिलकधारी लड़के ने दस का नोट थमाते हुए फिर एक बार उसे जानबूझकर छुआ और बोला 'चल चिप्‍स दे दे'. सारी वाहियातियां इस अंदाज में की जा रही थीं जैसे कुछ न किया जा रहा हो. औरत ने झट से एक चिप्‍स का पैकेट उसे थमाया और वहां से तेजी से हटी. उसके हंटते ही चारों-पांचों के चेहरे पर एक निर्लज्‍ज हंसी का समंदर हिलोरें मारने लगा. 'अबे क्‍या जबरदस्‍त माल था........','साले अब तो इसी ट्रेन से चलेंगे रोज'......अब तक लोगों के बर्दाश्‍त से बाहर हो चला था. इससे पहले कि लोग उठ कर कोई बवाल मचाते.....तभी सभी ने देखा कि थोड़ी दूर जाकर वो औरत एकदम से लौटी और उस तिलकधारी को दस रूपए वापस करते हुए बोली ये चिप्‍स मत खाना....'माफ करना भैया जल्‍दी मैं बताना भूल गई.....जो चिप्‍स आपने लिया है उसमें प्‍याज और लहसन डला है.....आप पूजा पाठ वाले आदमी लगते हैं...आपका धरम करम भ्रष्‍ट न हो' ये रहने दो और ये रहे आपके दस रूपए. औरत ने चिप्‍स का पैकेट उसके हाथ से वापस लिया और झोले में डाल अगले स्‍टेशन पर उतर गई. चारों -पांचों के चेहरे पर अब खामोशी थी. सवारियां सोच रही थीं कि धरम करम आखिर है क्‍या ?

मंगलवार, 4 जून 2013

मन के समंदर में डूब नि:शब्‍द छोड़ गई जिया...


फिल्‍म अभिनेत्री जिया खान खुदकुशी करके सभी को नि:शब्‍द छोड़ गई हैं. कुछ बुरी ख़बरों पर यकीन नहीं होता. शायद जिया भी निराशा और अवसाद से भरे उस बुरे वक्‍त का शिकार हुईं जिसमें डूब कर बाहर आना हर किसी के बूते का नहीं होता. अभी कल शाम एक चैनल पर फिल्‍म अभिनेता धर्मेन्‍द्र का इंटरव्‍यू देख रहा था. धर्मेन्‍द्र की साफगोई से कही गई एक बात ने बड़ा प्रभावित किया 'शोहरत का अंत हमेशा गुमनामी में होता है'. ये बात और है कि धर्मेन्‍द्र उस दौर से खुद गुजरे और लड़कर बाहर निकले. पर हर कोई इतना नसीबवाला नहीं होता. कुछ मीडिया रिपोर्टों से पता लग रहा है कि दुर्भाग्‍य से जिया भी इसी सब से गुजर रही थी. ऊपर से हंसते हुए लोगों के भीतर कितने बेचैन समंदर उफान मारते हैं....हम नहीं देख पाते. 

ऐसा नहीं है कि ऐसा पहली बार जिया के साथ ही हुआ हो...इस सपनों की दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए न जाने कितनी जिया हर पल घुट घुट कर अपनी जिंदगी तमाम कर रही हैं. जब बुरा वक्‍त आता है तो कई मोर्चों पर इंसान को तोड़ता है. जिया को पिछले कुछ समय से काम नहीं मिल रहा था...उनकी मां के मुताबिक अब वो इंडस्‍ट्री को छोड़ कर कोई अपना काम शुरू करना चाहती थी और घर लौटना चाहती थी. इंडस्‍ट्री ने उसे जो शोहरत दी वो ज्‍यादा दिन साथ न दे सकी. ग्‍लैमर की दुनिया के अपने उसूल हैं...यहां जो जितना ऊपर चढ़ता है उसके नीचे गिरने का खतरा भी उतना ही बढ़ जाता है....और जब गिरने का वक्‍त आता है तो संभालने वाले दूर तक नज़र नहीं आते. पहले भी कई अभिनेत्रियां डिप्रैशन का शिकार होकर अपनी जिंदगी का अंत कर चुकी हैं. जिया की जिंदगी में डिप्रैशन की वजह केवल काम न मिलना था या कुछ और भी था जिसने उसे पूरी तरह तोड़ दिया ये अगले कुछ दिनों में साफ हो जाएगा. मगर इस कलाकार की मौत ने एक बार फिर सोचने पर विवश कर दिया कि ये चमक दमक की दुनिया और दुनिया की चमक-दमक कितनी खोखली है.

बुलंदिया पर पहुंचना हुनर कभी नहीं होता....हुनर है बुलंदियों पर पहुंच कर संतुलन बनाए रखना. एक कलाकार का दुखद अंत इस जगमगाती दुनिया के कड़वे सच को रेखांकित करता हुआ हर बार निराश कर जाता है.

सिनेमा के महान चित्रकार का यूं चले जाना....

सिनेमा की दुनिया के महान चित्रकार रितुपर्णो घोष के साथ यह तस्‍वीर 5 अगस्‍त, 2012 की रात 8 बजकर, 53 मिनट पर ली गई थी. रितुपर्णों बीते गुरूवार को इस दुनिया को छोड़ कर चले गए. शायद इसीलिए कहा जाता है कि जिंदगी बहुत छोटी है. यहां से कब कौन चला जाएगा ....नहीं कहा जा सकता. ओसियान फिल्‍म फैस्‍टीवल का समापन उस रात घोष की फिल्‍म चित्रांगदा की स्‍क्रीनिंग के साथ ही हुआ था. फिल्‍म खत्‍म होने पर जब बाहर निकले तो रितुपर्णों बाहर मिल गए. फिल्‍म में उनके शानदार अभिनय के लिए मैंने और मेरे कुछ मित्रों ने उन्‍हें बधाई दी. एक मित्र ने जैसे आने वाले वक्‍त को देख लिया था....और कहा कि रितुपर्णों जी के साथ एक तस्‍वीर हो जाए फिर पता नहीं कभी दोबारा मिल पांए या नहीं. उनसे अनुरोध किया तो मुस्‍कुराकर इनायत कर दी और अब मेरे पास उनकी यह याद शेष है. रितु दा के अभिनय और निर्देशन का जादू ऐसा था कि उनकी लगभग हर फिल्‍म को किसी न किसी श्रेणी में राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कार से नवाजा गया और तमाम अंतराष्‍ट्रीय पुरस्‍कारों से भी. अभी चंद रोज पहले की कहीं पढ़ा था कि वे व्‍योमकेश बख्‍शी के जासूसी चरित्र पर आधारित अपनी नई फिल्‍म 'सत्‍यानवेषी' की शूटिंग समाप्‍त कर चुके हैं...मानवीय संबंधों की जटिलताओं और तमाम मानवीय पहलुओं को संवेदनशीलता के साथ सिल्‍वर स्‍क्रीन पर रचने वाला वो चित्रकार चला गया. यह अपूर्णीय क्षति है....और मैं अभी भी इस ख़बर पर विश्‍वास नहीं कर पा रहा हूं.

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

'कीड़ों की मौत'


फिर एक धमाका हुआ, 
कहां हुआ इससे क्या फर्क पड़ता है. 
मरे इस बार भी कीड़े-मकौड़े ही, 
सभी इंसान सुरक्षित हैं जेड़ प्लस में, 

इंसान अभी व्‍यस्‍त हैं
अपने घडियाली आंसू बहाने में,
व्‍यस्‍त हैं कीड़े मकौडों की जिंदगी की कीमत लगाने में,
दो-चार लाख बहुत रहेंगे न ?
इतना हो हल्ला क्यों ? 
आज पहली बार मरे हो क्या ,
या फिर ये आखिरी बार है ?

हां हां, हमें खबर थी, इत्तला भी दिया था 
अब किस-किस का ध्यान रखें, 
बहुत बड़ा देश है, बम फट ही जाते हैं.
कीड़ों के हत्यारों को सजा जरूर मिलेगी, 
तुम इत्मीनान रखो. 

बाकी कीड़े सहमे हुए हैं, 
वो जानते हैं कि इस बार बच गए हैं
सिर्फ अगली बार मरने के लिए,
कीड़े हर पल जिंदा रहने के लिए संघर्ष में हैं
इतना वक्त कहां है कि रुक कर उठ खड़े हों,
और गिरेबान पकड़ लें इंसानों का,
शाम को छोटे कीडे-मकौड़ों का पेट भी तो भरना है.