U TURN

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

भयभीनी श्रृद्धांजली !!!

एक भयभीत नागरिक की भय भरी श्रृद्धांजली उसके लिए 
जिसके मरने के बाद भी लोग उससे डरते हैं. 


डरो ! थर थर कांपो, 
कि वो चला तो गया है,
पर छोड़ गया है दबंगई और गुंडई की विरासत !


डर ही जन्मेगा तुम्हारे भीतर श्रृद्धा के फूल,
डर ही सनातन सत्य‍ है मुंबा देवी की नगरी का, 
क्या फर्क पड़ता है कि कब, किससे, कितना डरना है !

सवाल मत करो, 
जिंदा हो यही क्या कम है?
अपने जीवित होने का उत्सव मनाओ, 
देखो वो बड़े पर्दे वाले, पर्दों के पीछे वाले,
हाथ जिनके लालमलाल, और कर्मों से काले,
सब श्रृद्धा से जुड़े हैं और उनकी आंखे नम हैं !

अरे देखो वो भीड़ का रेला, 
कभी न देखा सुना, 
ये गीत है उसकी महानता का,
तुम भी गाओ, आओ भीड़ में शामिल हो जाओ,
तुम्हें अभयदान नहीं चाहिए क्या?

शनिवार, 3 नवंबर 2012

समंदर से पहली मुलाकात

मैंने कभी समंदर नहीं देखा था. बचपन से समंदर को महसूस करने की तलब थी जो आज देश के पूर्वी तट पर जगन्‍नाथ पुरी में जाकर पूरी हुई. समंदर से अपने प्रथम मिलन की अभिलाषा में मैं रात भर ठीक से सो भी न सका. समंदर पर खिलते सूर्योदय को देखने से न रह जाऊं...इस डर से रात में दो बार जाग कर घडी देख चुका था. खैर सुबह हुई.....और यहां पुरी में शायद कुछ ज्‍यादा जल्‍दी ही हो जाती है. मैं होटल सूर्या के अपने कमरे में बैड पर था और कुछेक फर्लांग दूर चिंघाड रहे समंदर को सुन सकता था. जीवन में पहली बार पहाड़, नदी, झरने या समंदर को देखना शायद जीवन के कुछ सबसे खास अनुभवों में शामिल हो जाता है. कल्‍पना में किसी चीज को देखना और फिर उसे आंखों से देखना...उसे छूना, महसूस करना...अंतर तो है. यहां मैं कुल तीन दिन ठहरने वाला हूं सो हर नए अनुभव को ठीक से जीने का मौका शायद एक से ज्‍यादा बार नहीं मिलेगा....ये बात बार बार हर चीज के प्रति अतिरिक्‍त रूप से सतर्क बना रही है.


खैर, सुबह 5.05 पर वो पल भी आया जिसका बरसों से इंतजार था. समंदर और मैं एक दूसरे के सामने थे. समुद्र तट पर ना आदमी न आदमी की जात....दूर तक सुनसान... हल्‍की नीली चांदनी को सूर्योदय की पहली किरणें चुनौती दे रही थीं....और हवा में मौजूद हल्‍की मीठी सी ठंडक से हाथों के रोएं उठ आए थे. धीरे धीरे बढ़ती सूरज की रौशनी से समंदर का पानी अब लाल हो चला था...और दूर जहां समंदर और आसमान शायद मिल रहे थे कुछ मछुआरों की नावें नज़र आने लगी थी. एक अजीब सा सन्‍नाटा और समुद्र की गर्जना मानो आपस में गुथ्‍थमगुथ्‍था होकर तीसरे आयाम को रच रहे हों. लहरें बार बार किनारे तक आती और लौट जाती. इससे पहले की यहां चहल पहल हो मैं समुद्र में घुल जाना चाहता था. अब मैं किनारे से कुछ कदम आगे पानी के बीचों बीच था...एक लाइफगार्ड अब तक यहां पहुंच चुका था. उसने पचास रू में आधे घंटे के लिए मेरी सुरक्षा की जिम्‍मेदारी अपने कंधों पर ले ली और पानी का आनंद लेने के कुछ टिप्‍स भी देता चला. बस फिर क्‍या था. मैं और समंदर बच्‍चों की तरह खेल रहे थे. वो हर लहर के साथ मुझे थोड़ा ऊपर की ओर उछाल देता और मेरे पैरों के नीचे से ढेर सारा पानी निकल जाने से लगता कि मैं तैर रहा हूं. और कभी-कभी पीछे से अचानक आकर पानी की लहर से धप्‍पा बोल देता. ये समंदर का उसकी गोद में खेलने वाले के साथ दोस्‍ती करने का अपना अंदाज था. तभी लाइफ गार्ड ने एक ट्यब मुझे पहना दी जिससे अब मैं कुछ और अंदर तक जाकर तैर सकता था. अब जमीन मेरे पैरों से काफी नीचे थी...पर मन में कोई डर नहीं. मैंने ऊपर की ओर उचक कर देखा तो सूरज ने आसमान पर अपना अधिकार जमा लिया था. मैंने चारों ओर देखा....और समंदर की विशालता पर अपने तिनके भर होने पर मुस्‍कुराया, ख्‍याल आया कि इसके पानी में न जाने कितना इतिहास घुला हुआ है और मानव सभ्‍यता के विकास का न जाने कब से ये ऐसे ही साक्षी रहा है, कहते हैं समंदर कुछ नहीं छोडता.....सब कुछ निगल लेता है, न जाने इसके तले में क्‍या क्‍या पडा हुआ होगा...थोडी देर में विचार शांत हुए तो मैं सिर्फ और सिर्फ पानी की हर लहर को महसूस कर रहा था और आंखें बंद कर न जाने कितनी देर समंदर की लहरों के साथ झूलता रहा........

(मेरी डायरी से पिछले साल आज ही के दिन का संस्‍मरण 3 नवंबर, 2011, जगन्‍नाथ पुरी, उडीसा)