U TURN

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

ओपिनियन पोल अपनी जगह सही, मगर इसे झोल से बचाना जरूरी.

आज ओपिनियन पोल की विश्‍वसनियता और चुनाव आयोग द्वारा इन्‍हें बैन किए जाने की बात पर घमासान मचा है. अभी आयोग सिर्फ राजनीतिक दलों से सुझाव मांग रहा है. मगर हंगामा बरपा है. मुझे दस साल पहले का वो वक्‍़त याद आ रहा है जब यूनिवर्सिटी के दिनों में, मैं खुद एक बड़े चुनावी सर्वेक्षण का हिस्‍सा रहा. दिल्‍ली की एक प्राइवेट सर्वेक्षण और मीडिया एजेंसी ने 2004 के लोक सभा चुनावों के दौरान पूरे हरियाणा में चुनावी सर्वेक्षण के लिए कुरूक्षेत्र विश्‍वविद्यालय से वॉलंटियर्स का एक इंटरव्‍यू के माध्‍यम से चयन किया. लगभग 100 स्‍टूडेंट्स को चुना गया. 10 स्‍टूडेंट्स वाली 10 टीमें तैयार की गईं. जिनमें एक टीम लीडर के साथ 9 और सर्वेक्षक साथ रहने थे. नार्थ हरियाणा के पांच जिलों की कमान संभाल रहे एक अधिकारी के अंतर्गत कुल दस यूनिटों को काम करना था. हर टीम के पास अपना वाहन था, जिला, तहसील, गांव, के हिसाब से पूरे 15 दिन तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक सर्वेक्षण किया जाना था. एक-एक गांव, शहर और तहसील से सैंपल लिए जाने थे....जिसमें हर सर्वेक्षक को पूरे दिन में कुल 18 लोगों से बात कर जनता का मिजा़ज सर्वे में दर्ज करना था. यानि कि 10 लोगों की एक टीम को पूरे दिन में 180 सैंपल तैयार करने थे. हमें कहा गया कि इस सर्वेक्षण के परिणाम समाचार पत्रों में प्रकाशित किए जाएंगे. हर स्‍टूडेंट को इस कार्य के लिए प्रतिदिन 250 रू बतौर पारिश्रमिक मिलना था. हमारे लिए यह सीखने के एक अच्‍छे अवसर के साथ, अपने प्रदेश के गांव, गली-कूचों को करीब से देखने का सुनहरा अवसर था.....हां पॉकेट मनी भी ठीक-ठाक बन जानी थी. 

एक टीम की कमान मुझे सौंपी गई. कई दिन तक सब ठीक चला. मगर दिमाग तो ठनक रहा था कि यार ये कौन सी एजेंसी है जो पूरे हरियाणा में करोड़ों रूपए फूंक कर चुनावी सर्वेक्षण करा रही है. कुछ ही दिनों में अंदाजा हो चला था कि किसी न किसी पॉलिटीकल पार्टी से इस सर्वेक्षण की फंडिंग हो रही है. बस सारा उत्‍साह जाता रहा. सबसे पहले हमने अपने पारिश्रमिक की राशि अंटी में की और फिर काम आगे बढ़ाया, पर अभी भी कहीं न कहीं हमें ये गुमान था कि हम कुछ औरिजनल काम कर रहे हैं. हमारे सर्वेक्षण का कुछ असर होगा. सर्वेक्षण सम्‍पन्‍न हुआ और सैकड़ों गांवों में हजारों लोगों से बात करने के बाद हमारी टीम को साफ हो चला था कि इस बार सरकार किस दल की बनेगी. खैर, सैंपल एजेंसी को सौंप दिए गए.......और हम भूल गए. चंद रोज बाद अखबारों में इसी एजेंसी के हवाले से इस सर्वेक्षण के परिणाम प्रकाशित हुए और जो परिणाम प्रकाशित हुए वे अंग्रेजी की भाषा में लोपसाइडेड थे. मतलब एकदम उलट. यहां तक कि कुरूक्षेत्र सीट से जिस प्रत्‍याशी का नाम सर्वेक्षण के संपन्न होने के दौरान घोषित ही नहीं था उसे भी सर्वेक्षण में बढ़त के साथ लगभग विजयी दर्शाया गया था. मेरे पास सैंपल सर्वे के प्रश्‍नपत्र के कुछ नमूने थे. जो ये साबित कर सकते थे कि सर्वे के परिणामों में फर्जीवाड़ा किया गया है. इसे कुछ प्रोफेसर्स के संज्ञान में लाया गया....उन्‍होंने सलाह दी कि अभी सिर्फ पढ़ाई पर ध्‍यान दो और इस गंदी राजनीति का शिकार बनने से बचो. उन्‍होंने इस सर्वेक्षण के खेल के कई और राज खोले. हम कई दिनों तक खुद को ठगा सा महसूस करते रहे. हां, चुनाव परिणाम ठीक वैसे निकले जैसा हमारी टीम ने सर्वेक्षण के दौरान पाया था. एक तरह से ऐसे सर्वेक्षणों के परिणामों से भरोसा उठ गया मगर सर्वेक्षण पर भरोसा और गहरा हो गया. हमने ये सीख लिया था कि सर्वेक्षण किए कैसे जाते हैं. 

इस सीख का इस्‍तेमाल कुछ ही दिनों बाद हमने अपनी यूनिवर्सिटी में ही कर ड़ाला. द टारगेट सर्वे के नाम से कैंपस में 500 स्‍टूडेंट का सैंपल साइज लेकर कैंपस की समस्‍याओं, वाइस चांसलर की कार्यप्रणाली, होस्‍टलों की हालत और तमाम मुद्दों पर लगभग 40 प्रश्‍नों को केन्‍द्र में रखकर एक सर्वेक्षण कर डाला. इसके असहज करने वाले परिणामों ने वाइस चांसलर साहब को भी असहज कर डाला. एक शाम हमें वाइस चांसलर रेजीडेंस पर चाय के लिए बुलाया गया. हमें विश्‍वास दिलाया गया कि सर्वे के परिणामों पर गंभीरता से विचार कर आवश्‍यक कार्रवाई की जाएगी. तो साहब, कुल मिलाकर आज मचे बवाल पर यही कहना है कि सवेक्षण एक लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था को सशक्‍त ही बनाते हैं, बशर्ते वे पूरी ईमानदारी के साथ किए गए हों. किसी चीज की खामियों की वजह से उसे बैन कर देना समस्‍या का समाधान नहीं है....जरूरत है कि उन खामियों को दूर किया जाए. सर्वेक्षणों का संचालन पारदर्शिता से हो इसके लिए कुछ कायदे कानून जरूरी हैं....नहीं तो भैया लोग अपना अपना सर्वेक्षण करा कर स्‍वयं को विजयी ही घोषित करते रहेंगे !!!

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

बहरूपिया

तुमने क्रांति की बातें की
लोगों ने हाथ उठा कर तुम्‍हारी आवाज बुलंद की,
तुमने न्‍याय की बात की
लोगों ने अपनी जान हथेली पर रख ली,
तुम मांगते गए 
लोग देते गए,
तुम जानते हो लोग अब किसी का साथ नहीं देते,
वे ठगे गए थे बार-बार,
पर बार-बार भरोसा टूटने के बाद भी
कुछ भरोसा हर शख्‍़स के भीतर रह जाता है !

इस बार
तुम मानवता के नाम पर आए
तुम इस बार भी खरे उतरे,
सारे विश्‍वासों, आस्‍थाओं और निष्‍ठाओं से परे
तुमने एक बार फिर उन्‍हें लूटा !!

तुम अब भी छाती तान कर बात करते हो,
क्रांति की, न्‍याय की और मानवता की,
क्‍या खूब तुम बदल देते हो
झूठ को सच में
अन्‍याय को न्‍याय में
निर्लज्‍जता को लज्‍जा में
पत्‍थर दिलों को पिघलाकर
सांचों में ढ़ालना तुमने कहां से सीखा
तुम आदमी हो या बहरूपिए
तुम जो भी हो,
बस इतना जान लो,
तुम्‍हारी समस्‍त कलाओं की भी एक सीमा है !!! 

धरम-करम

ट्रेन स्‍टेशन से छूटते ही चाय, चुरमुरे, चूरण-चटनी, पापड़ बेचने वाले ट्रेन में सवार हो लिए. अब अगले कुछ स्‍टेशनों तक इन्‍हें अपने तिलिस्‍मी झोलों में भरी ये चटर-पटर सवारियों को बेचनी थी और फिर झोला हल्‍का होने पर कोई दूसरी ट्रेन पकड़ कर वापस अपने ठिकाने पर आना था. ये सब बेचने वालों में ज्‍यादातर कम उम्र के लड़के, छोटी बच्चियां या फिर बूढ़े लोग ही रहते हैं. पर वक्‍़त की मजबूरी शायद आज उस औरत को पटरियों पर हर रोज यूं ही दौड़ती इस जिंदगी के बीच खुद की जिंदगी तलाशने पर मजबूर कर ले आयी थी. उसके थैले मे आलू के चिप्‍स, पापड़ और कुछ छुट-मुट सामान था. फीके से लाल रंग की साड़ी पहने ये औरत लोगों के बीच आवाज लगा कर चिप्‍स और पापड़ बेच रही थी. रोजमर्रा की सवारियों से शायद उसका परिचय हो चला था जो उससे कल की चिप्‍सों में थोड़े तेज मसाला होने की शिकायत कर रहे थे और पूछ रहे थे कि वो मुरमुरा नहीं लाई आज ? ये आंखें शर्मदार थीं या कहिए कि खुद इन पटरियों पर दौड़ती मजबूर जिंदगी के हमराह थे....जो उसकी देह पर नहीं सिर्फ सामान पर केन्द्रित थे. पर चार-पांच लोग इस डिब्‍बे में आज शायद नए थे. उनके लिए चलती ट्रेन में चिप्‍स और पापड़ बेचती औरत अजूबा थी....बस फिर क्‍या था. इनका ध्‍यान चिप्‍स पर न होकर उसकी देह पर था. औरत को सामान बेचता देख उन्‍हें न जाने कैसा रोमांच चढ़ा कि आपस में आंखों में बात करके चिप्‍स के लिए आवाज दी....औरत के झोले में क्‍या क्‍या है ? कौन चीज कितने की है ? किसमे मसाला कम है, किसमें ज्‍यादा है? ये मंहगा है ये सस्‍ता है! ये कितने में दोगी, वो कितने में दोगी ! एक जब झोले को टटोलकर सवाल-जवाब कर रहा था तो बाकी की आंखे उसके शरीर का नाप ले रही थीं. एक शोहदा तो छत के हैंडल से लटका हुआ भीड़ का बहाना करता हुआ बार-बार औरत के शरीर से सट कर मुस्‍कुरा रहा था. औरत इस वाहियाती को नज़रअंदाज कर बार-बार पूछ रही थी 'आपको क्‍या लेना है भाईसाहब....आपका जो दिल करे दे दीजिएगा'. इससे पहले कि बोगी के बाकी लोग उनकी इस वाहियाती को भांप कर कुछ करते उस तिलकधारी लड़के ने दस का नोट थमाते हुए फिर एक बार उसे जानबूझकर छुआ और बोला 'चल चिप्‍स दे दे'. सारी वाहियातियां इस अंदाज में की जा रही थीं जैसे कुछ न किया जा रहा हो. औरत ने झट से एक चिप्‍स का पैकेट उसे थमाया और वहां से तेजी से हटी. उसके हंटते ही चारों-पांचों के चेहरे पर एक निर्लज्‍ज हंसी का समंदर हिलोरें मारने लगा. 'अबे क्‍या जबरदस्‍त माल था........','साले अब तो इसी ट्रेन से चलेंगे रोज'......अब तक लोगों के बर्दाश्‍त से बाहर हो चला था. इससे पहले कि लोग उठ कर कोई बवाल मचाते.....तभी सभी ने देखा कि थोड़ी दूर जाकर वो औरत एकदम से लौटी और उस तिलकधारी को दस रूपए वापस करते हुए बोली ये चिप्‍स मत खाना....'माफ करना भैया जल्‍दी मैं बताना भूल गई.....जो चिप्‍स आपने लिया है उसमें प्‍याज और लहसन डला है.....आप पूजा पाठ वाले आदमी लगते हैं...आपका धरम करम भ्रष्‍ट न हो' ये रहने दो और ये रहे आपके दस रूपए. औरत ने चिप्‍स का पैकेट उसके हाथ से वापस लिया और झोले में डाल अगले स्‍टेशन पर उतर गई. चारों -पांचों के चेहरे पर अब खामोशी थी. सवारियां सोच रही थीं कि धरम करम आखिर है क्‍या ?

मंगलवार, 4 जून 2013

मन के समंदर में डूब नि:शब्‍द छोड़ गई जिया...


फिल्‍म अभिनेत्री जिया खान खुदकुशी करके सभी को नि:शब्‍द छोड़ गई हैं. कुछ बुरी ख़बरों पर यकीन नहीं होता. शायद जिया भी निराशा और अवसाद से भरे उस बुरे वक्‍त का शिकार हुईं जिसमें डूब कर बाहर आना हर किसी के बूते का नहीं होता. अभी कल शाम एक चैनल पर फिल्‍म अभिनेता धर्मेन्‍द्र का इंटरव्‍यू देख रहा था. धर्मेन्‍द्र की साफगोई से कही गई एक बात ने बड़ा प्रभावित किया 'शोहरत का अंत हमेशा गुमनामी में होता है'. ये बात और है कि धर्मेन्‍द्र उस दौर से खुद गुजरे और लड़कर बाहर निकले. पर हर कोई इतना नसीबवाला नहीं होता. कुछ मीडिया रिपोर्टों से पता लग रहा है कि दुर्भाग्‍य से जिया भी इसी सब से गुजर रही थी. ऊपर से हंसते हुए लोगों के भीतर कितने बेचैन समंदर उफान मारते हैं....हम नहीं देख पाते. 

ऐसा नहीं है कि ऐसा पहली बार जिया के साथ ही हुआ हो...इस सपनों की दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए न जाने कितनी जिया हर पल घुट घुट कर अपनी जिंदगी तमाम कर रही हैं. जब बुरा वक्‍त आता है तो कई मोर्चों पर इंसान को तोड़ता है. जिया को पिछले कुछ समय से काम नहीं मिल रहा था...उनकी मां के मुताबिक अब वो इंडस्‍ट्री को छोड़ कर कोई अपना काम शुरू करना चाहती थी और घर लौटना चाहती थी. इंडस्‍ट्री ने उसे जो शोहरत दी वो ज्‍यादा दिन साथ न दे सकी. ग्‍लैमर की दुनिया के अपने उसूल हैं...यहां जो जितना ऊपर चढ़ता है उसके नीचे गिरने का खतरा भी उतना ही बढ़ जाता है....और जब गिरने का वक्‍त आता है तो संभालने वाले दूर तक नज़र नहीं आते. पहले भी कई अभिनेत्रियां डिप्रैशन का शिकार होकर अपनी जिंदगी का अंत कर चुकी हैं. जिया की जिंदगी में डिप्रैशन की वजह केवल काम न मिलना था या कुछ और भी था जिसने उसे पूरी तरह तोड़ दिया ये अगले कुछ दिनों में साफ हो जाएगा. मगर इस कलाकार की मौत ने एक बार फिर सोचने पर विवश कर दिया कि ये चमक दमक की दुनिया और दुनिया की चमक-दमक कितनी खोखली है.

बुलंदिया पर पहुंचना हुनर कभी नहीं होता....हुनर है बुलंदियों पर पहुंच कर संतुलन बनाए रखना. एक कलाकार का दुखद अंत इस जगमगाती दुनिया के कड़वे सच को रेखांकित करता हुआ हर बार निराश कर जाता है.

सिनेमा के महान चित्रकार का यूं चले जाना....

सिनेमा की दुनिया के महान चित्रकार रितुपर्णो घोष के साथ यह तस्‍वीर 5 अगस्‍त, 2012 की रात 8 बजकर, 53 मिनट पर ली गई थी. रितुपर्णों बीते गुरूवार को इस दुनिया को छोड़ कर चले गए. शायद इसीलिए कहा जाता है कि जिंदगी बहुत छोटी है. यहां से कब कौन चला जाएगा ....नहीं कहा जा सकता. ओसियान फिल्‍म फैस्‍टीवल का समापन उस रात घोष की फिल्‍म चित्रांगदा की स्‍क्रीनिंग के साथ ही हुआ था. फिल्‍म खत्‍म होने पर जब बाहर निकले तो रितुपर्णों बाहर मिल गए. फिल्‍म में उनके शानदार अभिनय के लिए मैंने और मेरे कुछ मित्रों ने उन्‍हें बधाई दी. एक मित्र ने जैसे आने वाले वक्‍त को देख लिया था....और कहा कि रितुपर्णों जी के साथ एक तस्‍वीर हो जाए फिर पता नहीं कभी दोबारा मिल पांए या नहीं. उनसे अनुरोध किया तो मुस्‍कुराकर इनायत कर दी और अब मेरे पास उनकी यह याद शेष है. रितु दा के अभिनय और निर्देशन का जादू ऐसा था कि उनकी लगभग हर फिल्‍म को किसी न किसी श्रेणी में राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कार से नवाजा गया और तमाम अंतराष्‍ट्रीय पुरस्‍कारों से भी. अभी चंद रोज पहले की कहीं पढ़ा था कि वे व्‍योमकेश बख्‍शी के जासूसी चरित्र पर आधारित अपनी नई फिल्‍म 'सत्‍यानवेषी' की शूटिंग समाप्‍त कर चुके हैं...मानवीय संबंधों की जटिलताओं और तमाम मानवीय पहलुओं को संवेदनशीलता के साथ सिल्‍वर स्‍क्रीन पर रचने वाला वो चित्रकार चला गया. यह अपूर्णीय क्षति है....और मैं अभी भी इस ख़बर पर विश्‍वास नहीं कर पा रहा हूं.

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

'कीड़ों की मौत'


फिर एक धमाका हुआ, 
कहां हुआ इससे क्या फर्क पड़ता है. 
मरे इस बार भी कीड़े-मकौड़े ही, 
सभी इंसान सुरक्षित हैं जेड़ प्लस में, 

इंसान अभी व्‍यस्‍त हैं
अपने घडियाली आंसू बहाने में,
व्‍यस्‍त हैं कीड़े मकौडों की जिंदगी की कीमत लगाने में,
दो-चार लाख बहुत रहेंगे न ?
इतना हो हल्ला क्यों ? 
आज पहली बार मरे हो क्या ,
या फिर ये आखिरी बार है ?

हां हां, हमें खबर थी, इत्तला भी दिया था 
अब किस-किस का ध्यान रखें, 
बहुत बड़ा देश है, बम फट ही जाते हैं.
कीड़ों के हत्यारों को सजा जरूर मिलेगी, 
तुम इत्मीनान रखो. 

बाकी कीड़े सहमे हुए हैं, 
वो जानते हैं कि इस बार बच गए हैं
सिर्फ अगली बार मरने के लिए,
कीड़े हर पल जिंदा रहने के लिए संघर्ष में हैं
इतना वक्त कहां है कि रुक कर उठ खड़े हों,
और गिरेबान पकड़ लें इंसानों का,
शाम को छोटे कीडे-मकौड़ों का पेट भी तो भरना है.

रविवार, 30 दिसंबर 2012

संवेदना और शोक के समंदर में डूबी दिल्‍ली करेगी न्‍यू ईयर का स्‍वागत सनी लिओन के साथ ?

भारतीय मूल की कनेडियन पोर्न स्‍टार सनी लिओन नववर्ष की पूर्व संध्‍या पर दिल्‍ली में एक स्‍टेज शो करने जा रही हैं. पूरा देश जिस गैंग रेप की घटना के बाद इस वक्‍त नारी अस्मिता और सम्‍मान के लिए उबल रहा है ठीक उसी समय एक पोर्न स्‍टार के देश की राजधानी में होने जा रहे स्‍टेज शो ने एक नई बहस को जन्‍म दे दिया है. ये शो 31 दिसंबर की रात बाराखंबा रोड़ स्थित होटल ललित में आयोजित होगा. जहां कुछ लोग इसे नारी देह की स्‍वतंत्रता से जुड़ा मसला मान कर देख रहे हैं तो कईयों को इसमें कानूनी रूप से कोई गलत बात नज़र नहीं आती है. पर वहीं एक बड़ा तबका ऐसे लोगों का है जो एक पोर्न स्‍टार के शो को हलक से नीचे नहीं उतार पा रहा है. निश्‍चित ही समाज की तमाम वर्जनाएं टूट रही हैं और नए प्रतिमान स्‍थापित हो रहे हैं. पर क्‍या सनी लिओन ही वह सेलेब्रिटी है जिसके साथ दिल्‍ली को न्‍यू ईयर सेलीब्रेट करना चाहिए ?

      तमाम लोग सनी लिओन जैसी पोर्न स्‍टार को नारी देह की स्‍वतंत्रता का प्रतीक मान रहे हैं. इसमें मुझे शक है कि कोई पोर्न स्‍टार जिस नारी देह की स्‍वतंत्रता का दम भरती है वह वाकई किसी प्रकार की स्‍वतंत्रता है. स्‍वतंत्रता और व्‍यवसाय में फर्क है. हां वे स्‍वतंत्र हो सकती हैं अपने देश और अपने समाज में. वहां तो पहले ही सेक्‍स को लेकर इतनी वर्जनाएं नहीं हैं. फिर यह कैसी स्‍वतंत्रता है? हम कितना भी इसके पक्ष में तर्क करें पर अंतत: वह स्‍त्री को एक उपभोग की वस्‍तु से ज्‍यादा कुछ स्‍थापित नहीं कर पाती हैं. और यहीं से शुरू होती है स्‍त्री को मात्र एक देह समझने की संस्‍कृति.

एक दूसरा प्रश्‍न जो इस बहस में कुछ लोग उठा रहे हैं वह यह है कि क्‍या सनी लिओन जैसी पोर्न एक्‍ट्रेस के कारण बलात्‍कार जैसे अपराधों में कोई इजाफा होगा?  दरअसल प्रश्‍न भविष्‍य में परिणामों का नहीं है बल्कि प्रश्‍न है कि हम अपने आस-पास स्‍त्री की कौन सी छवी को स्‍थापित कर रहे हैं. मैं यहां संस्‍कृति और इतिहास की दुहाई नहीं देना चाहूंगा कि साहब हमारी संस्‍कृ्ति में ये होता था या स्‍त्री को ऐसे देखा जाता था. मैं यहां आपकी, मेरी और हम सबकी बात करना चाहूंगा. क्‍योंकि संस्‍कृति पर बहस करेंगे तो वह बहस भी विवादास्‍पद हो जाऐगी क्‍योंकि हमारा इतिहास भी ऐसे असंख्‍य दृष्‍टांतो से भरा पडा है जहां स्‍त्री को केवल भोग की वस्‍तु के रूप में देखा और समझा गया है. प्रश्‍न हमारा और आज का है कि आज हम स्‍त्री को क्‍या समझते हैं ? एक उपभोग की वस्‍तु या समाज का एक सम्‍मानीय अंग? स्‍तु   की, मेरी और हम सबकी बत

हम इस सत्‍य से नहीं भाग सकते कि इस वर्ष गूगल में भारतीयों ने जिस शख्स का नाम सबसे ज्‍यादा सर्च किया वह सनी लिओन ही हैं. बेशक होंगी. समाज में जब बीज ही आक के बोए जा रहे हों तो आम कहां से होंगे. क्‍या सनी लिओन एक बेहतरीन अभिनेत्री हैं जो महेश भट्ट ने पूरी दुनिया की अभिनेत्रियों को छोड़कर मात्र सनी को चुना. यह केवल भारतीय समाज में सेक्‍स को लेकर सदियों की गहरी बैठी कुंठाओं को भुनाने का जरिया मात्र है. अब हमें देखना होगा कि क्‍या यह समस्‍या है? तो मेरे नजरिए से यकीनन है.....सेक्‍स के लिए वाजिब खुला स्‍पेस अवश्‍य ही होना चाहिए. जितनी अनावश्‍यक वर्जनाएं हैं जरूर टूटनी चाहिएं. पर इसके कुछ नियम तय करने होंगे. क्‍योंकि हर चीज सही या गलत देश काल ओर परिस्थितियों से तय होती है. हमारा समाज (जिसमें कि देश का गांव देहात और वो हिस्‍सा भी शामिल है जहां औरतों को पराए मर्द को अपना चेहरा तक नहीं दिखाने के संस्‍कार/संस्‍कृति प्रचलित हैं) पोर्न स्‍टार्स को स्‍वीकारने के लिए परिपक्‍व नहीं हुआ है. इसके लिए एक दूसरे ही समाज की आवश्‍यकता है. जो‍कि भारत में फिलहाल संभव नहीं है. जहां हमारे घरों में स्‍त्री-पुरूष संबंध अभी भी जंजीरों में उलझे हों वहां किसी पोर्न स्‍टार के बूते नारी की स्‍वतंत्रता की दुहाई मात्र ढकोसला ही रह जाती है. बहुत से सज्‍जन सनी लिओन के सेलेब्रिटी बनाने पर की जा रही आपति पर बहस करते हुए तर्क देते हैं कि भाई यह भी एक प्रोफेशन है इसमें क्‍या बुराई है? इस पर बांग्‍लादेश की लेखिका तस्‍लीमा नसरीन इन लोगों से तीखा प्रश्‍न करते हुए पूछती हैं कि जब आप पॉर्न स्टार को एक सेलेब्रिटी बनाते हैंतो आप एक एस्ट्रानॉटइंजीनियर या डॉक्टर बनाने की बजाय अपनी बेटियों को भी एक पार्न स्टार बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ? सवाल वाजिब है और बहुत संभव है कि इसका उत्‍तर उन लोगों के पास नहीं होगा.

सनी लियोन को लाना एक लॉबी और एक विचार-पक्ष के लोगों की सोची समझी रणनीति ही है....और इसकी शुरूआत महेश भट्ट अपनी फिल्‍म जिस्‍म 2 से पहले ही कर चुके हैं. उन्‍होंने बरसों से कुंठा में जी रहे भारतीय समाज को एक सेक्‍स के बडे सिंबल से परिचय करवा दिया है. ये एक शुरूआत भर थी जिसे अब बाजार पूरी तरह भुनाने को तैयार बैठा है. फिल्‍म के बाद जितने एंडोर्समेंट सनी लिओन को भारतीय बाजार से मिले हैं वह वाकई हैरतंगेज हैं. बिग बास में तो प्रतिभागियों के लिए पहली शर्त ही विवादास्‍पद होना है. कुछ दिनों पूर्व देश के सभी प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में सनी लिओन के चित्रों से अटे मैनफोर्स कोंडोम कंपनी के पूरे पूरे पृष्‍ठ के रंगीन विज्ञापन अभी सभी को याद ही होंगे. अब सनी लिओन भारत में दिल्‍ली वालों को नये साल की खुशियां मनाने का सलीका सिखाने आ रही हैं. ये बस एक शरूआत है....दुनिया भर की पोर्न इंडस्‍ट्री भारत में अरबों रूपए का बड़ा बाजार देख रही है और महेश भट्ट जैसे हमारे देसी एजेंट उनके आगमन को अवतार साबित करने में कोई कसर नहीं छोडेंगे.

बेशक इस स्‍टेज शो के टिकट इतने मंहगे हैं कि इस शो में देश का धनाढ्य तबका ही शामिल होगा पर क्‍या ये धनाढ्य और तथाकथित ‘सभ्रांत’ तबका इस समाज का हिस्‍सा नहीं है? वे कौन लोग हैं जो संवदेना और शोक में डूबे शहर के बीच से निकल कर इस जश्‍न में शामिल होंगे? क्‍या उन्‍हें यकीन है कि उनकी बच्चियां सुरक्षित हैं? क्‍या वे ये समझते हैं कि दिल्‍ली और पूरा देश यूं ही शोर कर रहा है ?क्‍या ये डिसकनेक्‍टेड लोग हैं? या देश और समाज से कोई सरोकार न रखने वाले लोग ये केवल और केवल अय्याशी है. हम अय्याशी को हवा देंगे तो बलात्‍कार जैसे अपराध बढेंगे ही. परंतु अब अगर आप मुझसे पूछने लगें कि क्‍या मेरे पास इस बात के कोई प्रमाण मौजूद है कि सनी लिओन के शो से निकलने के बाद कितने लोगों ने बलात्‍कार किए तो साहब इस वाहियात प्रश्‍न का उत्‍तर न होने के लिए मैं पहले ही क्षमा मांग लेता हूं. सनी लिओन भले ही बलात्‍कार जैसे अपराधों के लिए उत्‍तरदायी न हो पर वह स्‍त्री की वह क्षवि खड़ी नहीं करती जिससे कि हम एक स्‍त्री को सम्‍मान की दृष्टि से देख पाएं.

बाजार से किसी को सीधे तौर पर कोई खतरा नहीं दिखाई देता है. यही बाजार की कला है कि वह आपको ज़हर भी इस अदा से बेचता है कि आप उसे अमृत मान कर खरीद लेते हैं. जिस स्‍वतंत्रता और स्‍त्री अधिकार के नाम पर नंगापन समाज में सींचा जा रहा है वह अभी दिखाई नहीं दे रहा. सब नशे में हैं और आधुनिकता के नग्‍न नृत्‍य में मग्‍न हैं. जब तक 'शीला की जवानी' और 'मुन्‍नी बदनाम हुई' और 'लौंडिया पटाएंगे मिस्‍ड कॉल से' जैसे गीत बनेंगे और समाज उन्‍हें गुनगुनाएगा, शादी बयाह में बजाएगा तब तक हम औरत के प्रति सम्‍मान का वातावरण सुनिश्चित नहीं कर सकते. पूरी बेहयाई से स्‍त्री को महज एक प्रोडक्‍ट बना कर रख दिया है हमारी फिल्‍मों, टीवी और विज्ञापन की दुनिया ने. और हम नशे में हैं और इस नशे में ये भूल रहे हैं कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए जो प्रतिमान स्‍थापित कर रहे हैं वह उस पूरी पीढ़ी को बर्बाद कर सकते हैं. हमारी ये जरूरत से ज्‍यादा ‘आजाद ख्‍याल’ गुमराह जीवन शैली ही सामाजिक समस्‍याओं की जड़ बन रही है. अगर नैतिक और चारित्रिक पतन जैसी किसी चीज का अस्तित्‍व है तो वह इसी समय घटित हो रही है.

मुझे मालूम है कि सनी का ये शो नहीं रूकेगा, और ये भी संभव है कि आने वाले दिनों में इस पोर्न स्‍टार सहित और कई पोर्न स्‍टार्स के शो भारत में होंगे, ये भी हो सकता है कि जल्‍द ही भारत में वैध रूप से पोर्न फिल्‍में बननी शुरू हो जाएं, ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि गरीबी से मजबूर होकर हमारे देश की बेटियां इस पेशे में आने लगें, एक दिन ऐसा भी आ सकता है भारत की पोर्न फिल्‍मों के बाजार का टर्न ओवर विश्‍वभर में सबसे ज्‍यादा हो जाए, तब भी कुछ लोग उसे आर्थिक प्रगति ही कहेंगे....सब यूं ही चलता रहा तो सब कुछ संभव है. अब देश को तय करना है कि वह कैसा भविष्‍य चाहता है और फिलहाल दिल्‍ली को तय करना है कि क्‍या वह दामिनी की मृत्‍यु के शोक के बीच नये साल का स्‍वागत सनी लिओन के साथ करेगी?

(ये लेखक के निजी विचार हैं इनसे सभी का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) 

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

आक्रोश और समाधान के बीच रायसीना का युवा आंदोलन

शहर की फिजां में जब दरिंदे खुले आम घूम रहे हों और कानून और व्‍यवस्‍था के इंतजामात नाकाफी साबित होने से पानी सिर के ऊपर से गुजर रहा हो तो क्‍या कोई खामोशी से घर के भीतर बैठा रह सकता है. कॉमन मैन को देश में हमेशा फॉर ग्रांटेड ही लिया जाता रहा है. पर सिस्‍टम अक्‍सर भूल जाता है कि ‘दे आर रेजिलिएंट बाय फोर्स नॉट बाय च्‍वाइस’. खामोशी को मजबूरी समझने की समझ ने ही हमें आज इस मुकाम पर ला दिया है. पर अब इस देश की युवा शक्ति को ये हालत स्‍वीकार नहीं है. तथाकथित ‘बडों’ और ‘मैच्‍योर’ लोगों द्वारा युवाओं को गैर जिम्‍मेदार कह कर बार बार खारिज किया जाता रहा. पर आज इन्‍हीं गैर जिम्‍मेदार युवाओं की थोड़ी सी हिल गई तो न्‍याय के लिए अपनी बुलंद आवाज से जर्रे जर्रे को हिला कर रख दिया. आज 20 हजार लड़के-लड़कियां राजपथ पर न्‍याय की मांग को लेकर इस कसम के साथ उतरे कि जब तक उन्‍हें उनका हक नहीं मिल जाता वे जमीन नहीं छोडेंगे. 



मैंने खुद सुबह 09.00 बजे से अब तक के घटनाक्रम को अपनी आंखों से देखा और जिया....आज जो रायसीना की पहाडियों पर हुआ वो आज तक नहीं हुआ था. गुस्‍से का गर्दोगुबार उठा वो बस उठता ही चला गया, रायसीना की पहाडी पर ठीक हुक्‍मरानों के दरो-दीवार पर न्‍याय की आवाज बुलंद कर रही युवा शक्ति पर पानी की तोप के प्रहार, आंसू गैस के गोले, हवाई फायरिंग और लाठी चार्ज किया गया. दर्जनों लड़के लडकियां घायल हुए. शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे बच्‍चों, लडकियों और युवाओं पर पुलिस का हर जुल्‍म उनकी अदम्‍य शक्ति के आगे बौना साबित रहा. प्रशासन की बौखलाहट साफ देखी जा सकती थी और शायद सरकार भी इसे कोई राजनीतिक आंदोलन मानने की भूल कर रही थी. विजय चौक गुस्‍से में उबल रहा था और कोई सामने आकर इन आंदोलनरत युवाओं को एक बेहतर कल का वायदा करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था. दमनचक्र चलता रहा लोग घायल होते रहे पर डटे रहे, लोग आते रहे और हर तरफ सिर्फ न्‍याय मांगते सिर बढ़ते रहे. रायसीना की पहाडियां जंग के मैदान में तब्‍दील होती गईं. बलात्‍कारियों के खिलाफ सख्‍़त से सख्‍़त कानून, फास्‍ट ट्रैक कोर्ट में स्‍पीडी ट्रायल, दिल्ली रेप केस के अपराधियों को फांसी की सजा और एक चुस्‍त प्रशासन की मांग लेकर सुबह शुरू हुई मुहिम इस वक्‍त भी इंडिया गेट पर जारी है. सवाल बहुत हैं पर जबाव कहीं नहीं है. ;;;; ;;;  



      सब हैरान हैं कि ये सब हुआ कैसे ?  दरअसल कुछ युवाओं ने चंद रोज पहले फेसबुक पर तय किया कि 21 तारीख को सुबह 09 बजे इंडिया गेट पर एक प्रोटेस्‍ट गैदरिंग होगी...... और देखते ही देखते हजारों लोगों ने खुद आने और अपने सगे संबंधियों और मित्रों को साथ लाने का वायदा किया और आयोजकों की उम्‍मीद से कहीं ज्‍यादा संख्‍या और उत्‍साह से आए. युवाओं द्वारा प्रयोग किए गए नारे और हाथों में पकडे स्‍लोगनों से उनके दिल का दर्द साफ समझा जा सकता था. यहां आने वालों की औसम उम्र 20 से 22 वर्ष रही होगी. हां उन्‍हें लीड़ थोडी बडी उम्र के साथी ही कर रहे थे. 

आज का यूथ प्रोटैस्‍ट शायद आर्गेनाइज्‍ड नहीं था. इसीलिए थोड़ा बेतरतीब भी था.....पर कुछ चीजें बेतरतीब ही सही होती हैं. तरतीब लगाने वाले लोग कुछ खास बदल नहीं पाते. ये किसी राजनीतिक दल या एक एनजीओ द्वारा संचालित नहीं था. इसे कोई एक व्‍यक्ति भी लीड़ नहीं कर रहा था. बस एक जज्‍़बा उन्‍हें आपस में बांधे हुए था. ये नया दौर है...जहां तकनीक ने आज विजय चौक को तहरीर चौक में तब्‍दील कर दिया है. भर सर्दी में दिल्‍ली के कौने कौने से 8.30 बजे से युवाओं की टोलियां कोई मौज मस्‍ती करने सड़क पर नहीं उतरी थी. पानी के गोलों और आंसू गैस के गोलों के सामने भी एक दूसरे का हाथ थामे डटे रहने वाले युवा शायद संकेत दे रहे हैं कि उनके धैर्य की परीक्षा न ली जाए. सब चलता है.....अब नहीं चलेगा. हजारों युवा सड़क पर जब दमन झेल रहे थे तब देश के बुद्धिजीवी लाइव टेलीकास्‍ट देख रहे थे. और हां शायद अभी भी कुछ लोग इसे दूध का उफान समझ कर जल्‍द बैठ जाने की गलती कर रहे थे.

प्रदर्शन के दौरान बढ़ते दबाव को देखते हुए भीड़ को तितर-बितर करने के लिए अचानक ठंडे पानी की तेज धार से प्रहार शुरू हो गए....भर ठंड में गीले कपडों में युवाओं के धैर्य की परीक्षा ली जाती रही. फिर शुरू हुआ लाठी चार्ज, स्‍कूली बच्‍चों और लड़कियों पर भी जमकर लाठियां भांजी गईं और फिर अश्रु गैस के गोलों की फायरिंग....हर तरफ धुंआ और आंखों में जलन. अचानक एक गोला मेरे नजदीक खडी एक लड़की के पैर पर आकर लगा....लड़की गिरती है और पैर से खून की धार निकल पड़ी. कुछ युवाओं ने उसे उठा कर एम्‍बुलेंस में पहुंचाया... तभी दो तीन और धमाके हुए.... भगदड़ हुई और देखा कि इस फायरिंग में कई लोग जख्‍मी हो चुके हैं. भीड़ का रेला कुछ गज पीछे हटा....कुछ लोग और घायल हुए.... थोड़ी देर बाद जब पानी की धार बंद हुई....युवाओं की ये फौज फिर से समरभूमि के फ्रंट पर मौजूद थी. सारा दिन ये गुरिल्‍ला युद्ध विजय चौक पर जारी रहा. पर आग दिल में लगी थी सो पीछे हटना गवांरा नहीं था...सो हक की जिद जारी रही. एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन को मासूमों पर हमला कर प्रशासन ने स्‍वयं इसे आक्रोश की पराकाष्‍ठा तक पहुंचा दिया. जहां जुबान से बात हो सकती थी वहां लाठी चल रही थी. खैर शाम तक कुछ कुर्सियां हिलीं और प्रेस वार्तांए हुईं ...कुछ को सस्‍पेंड किया गया, तमाम नए वायदे किए गए. एक बात समझ नहीं आती ....जब तक बवाल ने मचे हम कुछ क्‍यों नहीं करते?

टीआरपी की भूख मीडिया को भीड़ के पीछे चलने और सनसनी को हवा देने को मजबूर कर देती है. आज भी वही हुआ सुबह 10 बजे तक जब सब कुछ शांतिपूर्ण था कुछ बेनाम से टीवी चैनल और कुछ प्रेस फोटोग्राफर मैदान में थे....और युवाओं के गगनभेदी नारे भी नक्‍कार खाने में तूती की तरह बोल रहे थे. शांतिपूर्ण प्रदर्शन की कवरेज पर कहां टीआरपी मिलती है साहब. पर दस बजते-बजते रायसीना की तस्‍वीर बदलने लगी. भर सर्दी में भी माहौल में तपिश बढ़ रही थी....पुलिस अटैक की तैयारी कर चुकी थी. हम देख सकते थे एक पुलिस बस के ऊपर मचान बनाए कुछ मीडिया कर्मी लगातार फोन कर अपने साथियों को बुलाने में जुटे थे. बस फिर क्‍या था.....कुछ मिनटों में ही तमाम ओबी वैन ने पड़ाव डाल लिया. और लाइव रिपोर्टिंग शुरू. कुछ ने तो इसे अपनी मुहिम बताने का अभियान भी चलाया हुआ है. अगर थोडी भी गैरत मीडिया में बची हो तो ये राजनीति बंद कर दें.

युवा जब भी कुछ नया करते हैं तो उससे उपजी उम्‍मीदों को खामख्‍याली ही समझा जाता है....इस बार भी ऐसा हो सकता है. पर अब वक्‍त बदल रहा है.....इस देश को अब युवा शक्ति ही चलाएगी. चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र हो या सामाजिक हो....युवा अब हर मोर्चे पर मुखर हो रहा है. जितना इसे नज़रअंदाज किया जाएगा ये उतना ही प्रखर होगा.....और सबसे अच्‍छी बात ये है कि युवा किसी मुद्दे पर जुटने से पहले जात धर्म और बिरादरी की पड़़ताल नहीं करता है उसका धर्म उसका युवा होना ही है.  ये आंदोलन पूरी तरह युवा शक्ति का आंदोलन है. आज के प्रदर्शन में कोई राजनीतिक दल दूर दूर तक नज़र नहीं आया. लेकिन एक प्रश्‍न आज का आंदालन पीछे छोड़ गया है इस आंदोलन में मैच्‍योर और उम्रदराज लोग नज़र नहीं आ रहे हैं. क्‍या ये लड़ाई केवल युवाओं की है ? युवा शक्ति दरअसल कितनी जिम्‍मेदार और संवेदनशील है ये कोई भी तभी जान सकता है जब वह उनके साथ अश्रु गैस के गोले झेले, पानी की तोप के आगे डटे या लाठी खाए. सेमिनार में भाषण देना या घरों के अंदर उपदेश देना बहुत आसान है.

ये आंदोलन एक शुरूआत भर है...यकीनन ये आधी आबादी का पूरा इंकलाब था. पर हां, इसकी दिशा को लेकर हमें सचेत रहना होगा. दिशा भटकते ही कोई भी आंदोलन अपना महत्‍व खो देता है. किसी साफ नेतृत्‍व के अभाव में यह संकट इस आंदोलन पर भी हावी है. इस आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभा रहे युवाओं को अब जल्‍द से जल्‍द आपस में एक व्‍यवस्था बनानी होगी जिसमें वे मिलकर तय कर सकें कि कब क्‍या और कितना करना है ताकि ये आंदोलन अपनी ऊर्जा न खोए और न बिखरे...क्‍योंकि दिल्‍ली से शुरू हुए इस आंदोलन की गूंज अभी देश के कौने-कौने तक पहुंचनी है. हजारों बलात्‍कार पीडिताएं अभी न्‍याय के इंतजार में हैं.

इस आंदोलन का एक उद्देश्‍य जनता को जागरूक करना भी है. जो संवेदनाएं मर चुकी हैं या सो चुकी हैं उन्‍हें जगाना भी है. इंसानियत हर दिल में अभी मरी नहीं है. पर जिनके दिल में मर गई है उनके लिए मातम मनाने का वक्‍त नहीं है अब हमारे पास. हमें अलख जगानी होगी....जो दूसरे का दर्द समझते हैं वे हाथ मिलाएं और आगे बढ़ें. जिस समस्‍या से हम जूझ रहे हैं वह प्रशासनिक बहुत बाद में पहले मानसिक और फिर सामाजिक भी है. सरकार बहुत बाद में आती है. हां, सड़क पर चलता हर आदमी पुलिस है यदि वह किसी लड़की के साथ ज्‍यादती होते हुए देख कर विरोध करता है,  उसकी सहायता करता है. और अगर वह ऐसा नहीं करता है तो वह भी अपराध में अपराधी का साथ ही दे रहा है. हर व्‍यक्ति को खुद की जिम्‍मेदारी भी समझनी होगी.

और हां, मैं समझता हूं कि आज जो हुआ उससे व्‍यवस्‍था ने सबक लिया होगा. शायद आज युवा दुष्यंत जी के शब्‍दों में यही कहना चाहते हैं कि

‘महज़ हंगामा खड़ा करना मेरा महसद नहीं,
      मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.....’ 

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

भयभीनी श्रृद्धांजली !!!

एक भयभीत नागरिक की भय भरी श्रृद्धांजली उसके लिए 
जिसके मरने के बाद भी लोग उससे डरते हैं. 


डरो ! थर थर कांपो, 
कि वो चला तो गया है,
पर छोड़ गया है दबंगई और गुंडई की विरासत !


डर ही जन्मेगा तुम्हारे भीतर श्रृद्धा के फूल,
डर ही सनातन सत्य‍ है मुंबा देवी की नगरी का, 
क्या फर्क पड़ता है कि कब, किससे, कितना डरना है !

सवाल मत करो, 
जिंदा हो यही क्या कम है?
अपने जीवित होने का उत्सव मनाओ, 
देखो वो बड़े पर्दे वाले, पर्दों के पीछे वाले,
हाथ जिनके लालमलाल, और कर्मों से काले,
सब श्रृद्धा से जुड़े हैं और उनकी आंखे नम हैं !

अरे देखो वो भीड़ का रेला, 
कभी न देखा सुना, 
ये गीत है उसकी महानता का,
तुम भी गाओ, आओ भीड़ में शामिल हो जाओ,
तुम्हें अभयदान नहीं चाहिए क्या?

शनिवार, 3 नवंबर 2012

समंदर से पहली मुलाकात

मैंने कभी समंदर नहीं देखा था. बचपन से समंदर को महसूस करने की तलब थी जो आज देश के पूर्वी तट पर जगन्‍नाथ पुरी में जाकर पूरी हुई. समंदर से अपने प्रथम मिलन की अभिलाषा में मैं रात भर ठीक से सो भी न सका. समंदर पर खिलते सूर्योदय को देखने से न रह जाऊं...इस डर से रात में दो बार जाग कर घडी देख चुका था. खैर सुबह हुई.....और यहां पुरी में शायद कुछ ज्‍यादा जल्‍दी ही हो जाती है. मैं होटल सूर्या के अपने कमरे में बैड पर था और कुछेक फर्लांग दूर चिंघाड रहे समंदर को सुन सकता था. जीवन में पहली बार पहाड़, नदी, झरने या समंदर को देखना शायद जीवन के कुछ सबसे खास अनुभवों में शामिल हो जाता है. कल्‍पना में किसी चीज को देखना और फिर उसे आंखों से देखना...उसे छूना, महसूस करना...अंतर तो है. यहां मैं कुल तीन दिन ठहरने वाला हूं सो हर नए अनुभव को ठीक से जीने का मौका शायद एक से ज्‍यादा बार नहीं मिलेगा....ये बात बार बार हर चीज के प्रति अतिरिक्‍त रूप से सतर्क बना रही है.


खैर, सुबह 5.05 पर वो पल भी आया जिसका बरसों से इंतजार था. समंदर और मैं एक दूसरे के सामने थे. समुद्र तट पर ना आदमी न आदमी की जात....दूर तक सुनसान... हल्‍की नीली चांदनी को सूर्योदय की पहली किरणें चुनौती दे रही थीं....और हवा में मौजूद हल्‍की मीठी सी ठंडक से हाथों के रोएं उठ आए थे. धीरे धीरे बढ़ती सूरज की रौशनी से समंदर का पानी अब लाल हो चला था...और दूर जहां समंदर और आसमान शायद मिल रहे थे कुछ मछुआरों की नावें नज़र आने लगी थी. एक अजीब सा सन्‍नाटा और समुद्र की गर्जना मानो आपस में गुथ्‍थमगुथ्‍था होकर तीसरे आयाम को रच रहे हों. लहरें बार बार किनारे तक आती और लौट जाती. इससे पहले की यहां चहल पहल हो मैं समुद्र में घुल जाना चाहता था. अब मैं किनारे से कुछ कदम आगे पानी के बीचों बीच था...एक लाइफगार्ड अब तक यहां पहुंच चुका था. उसने पचास रू में आधे घंटे के लिए मेरी सुरक्षा की जिम्‍मेदारी अपने कंधों पर ले ली और पानी का आनंद लेने के कुछ टिप्‍स भी देता चला. बस फिर क्‍या था. मैं और समंदर बच्‍चों की तरह खेल रहे थे. वो हर लहर के साथ मुझे थोड़ा ऊपर की ओर उछाल देता और मेरे पैरों के नीचे से ढेर सारा पानी निकल जाने से लगता कि मैं तैर रहा हूं. और कभी-कभी पीछे से अचानक आकर पानी की लहर से धप्‍पा बोल देता. ये समंदर का उसकी गोद में खेलने वाले के साथ दोस्‍ती करने का अपना अंदाज था. तभी लाइफ गार्ड ने एक ट्यब मुझे पहना दी जिससे अब मैं कुछ और अंदर तक जाकर तैर सकता था. अब जमीन मेरे पैरों से काफी नीचे थी...पर मन में कोई डर नहीं. मैंने ऊपर की ओर उचक कर देखा तो सूरज ने आसमान पर अपना अधिकार जमा लिया था. मैंने चारों ओर देखा....और समंदर की विशालता पर अपने तिनके भर होने पर मुस्‍कुराया, ख्‍याल आया कि इसके पानी में न जाने कितना इतिहास घुला हुआ है और मानव सभ्‍यता के विकास का न जाने कब से ये ऐसे ही साक्षी रहा है, कहते हैं समंदर कुछ नहीं छोडता.....सब कुछ निगल लेता है, न जाने इसके तले में क्‍या क्‍या पडा हुआ होगा...थोडी देर में विचार शांत हुए तो मैं सिर्फ और सिर्फ पानी की हर लहर को महसूस कर रहा था और आंखें बंद कर न जाने कितनी देर समंदर की लहरों के साथ झूलता रहा........

(मेरी डायरी से पिछले साल आज ही के दिन का संस्‍मरण 3 नवंबर, 2011, जगन्‍नाथ पुरी, उडीसा)