‘आम जनता’
- सौरभ आर्य
आम जनता नित्य
पिसती, ज्यों मसाले पिस रहे हों
चंद टुकडों
के सहारे, जिंदगी को घिस रहे हों,
भूख के आधार
पर प्रगति की कैसी कथा है
वंचितों के
स्वर से फूटी, कष्ट की अद्भुत व्यथा है।
राष्ट्र
प्रगति कर रहा है, कहना तो आसान है
पर फांसियों पर झूलता क्यों, इस देश का किसान है,
इस गरीबी और
अमीरी के सनातन युद्ध में
देश दो भागों
में बंटता पर हमें अभिमान है।
भूकम्प से
गर बच गए तो, भूख से निश्चित मरेंगे
इस जमीं के
देवता कब, जाने इस दुःख को हरेंगे,
वोट देकर
जिनको भेजा दिल्ली के संसद भवन में
उस भूल का
फिर खामियाजा, आमजन कब तक भरेंगे ।
सत्याग्रह
के गीत गाता, ये पपीहा कौन है
रक्त रंजित
गोधरा पर का वो मसीहा कौन है,
इंसानियत का
कत्ल होता, दिन दहाड़े चौक पर
सभ्यता के
इस समर में, हारा जीता कौन है ।
बम धमाकों
में जो मरते आमजन हम तुम ही जैसे
मृत्यु के
इस शोक पर भी नाच नंगे कैसे-कैसे,
लोकतंत्र के
इस भवन को हम नमन कैसे करें अब
आमजन की
वेदना पर मौन धर के बैठें हैं सब ।
चल रही ऐसी
हवाएं माना कि तूफान हो
तीर तरकश का
धनुष पर, अब आखिरी संधान हो,
कस कमर अब
उतरो रण में, चाहे प्राण ही बलिदान हो
राष्ट्रभक्ति
के हवन में, हर शक्ति के आह्वान हो ।
- जय हिन्द -
(दिनांक 19.09.2011 को वस्त्र मंत्रालय में आयोजित हिन्दी काव्य पाठ प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त्ा कविता)
Bahut hi prasngik kavita hai.Ye aam jan ki bedana ka chitran hai.
जवाब देंहटाएंThanks Archit bhai :-)
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