ब्रिटेन का एक अख़बार ‘न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ जो 168 वर्ष पूर्व शुरू हुआ और कई पीढि़यों का संगी-साथी बना अंतत: चंद रोज पहले बंद कर दिया गया। अपने अंतिम अंक ‘थैंक यू एण्ड गुड बाय’ के साथ 27 लाख की प्रसार संख्या और न्यूज कार्पोरेशन की दुधारू गाय ‘न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ का अचानक बंद हो जाना कोई सामान्य घटना नहीं है। लेकिन इसके असमय अंत के लिए आत्महंता की भूमिका ‘न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ ने स्वंय ही निभाई। पत्रकारिता जब धर्म न रहकर पूर्णतया व्यवसाय बन जाएगी तब यही होगा। साध्य के लिए साधन की शुचिता के प्रश्न पर इस अख़बार ने अपनी आंखें मूंद लीं। ‘गंदा है पर क्या करें, धंधा है’ के तर्क को आधार बना कर चलने वालों ने ही पत्रकारिता को कोठे पर पहुंचा दिया है ।
शुरूआती दौर में गंभीर खबरों और मनोरंजन से भरपूर हल्की फुल्की खबरों के बीच के नाजुक संतुलन को कायम कर पूरी तरह एक टेब्लॉयड की भूमिका में अपने स्लोगन ‘ऑल ह्यूमन लाइफ इज देअर’ को चरितार्थ किया और लोगों ने भी इस अख़बार को हाथों हाथ लिया । मगर फिर वह हुआ जो हर धंधे में होता है... ‘द न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ को सैम कैम्पबेल के संपादन में निकलने वाले ‘द संडे पीपल’ ने कड़ी टक्कर दी। खोजी पत्रकारिता के दम पर ‘द पीपल’ तेजी से बुलंदियों को छूने लगा और ‘द न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ की प्रसार संख्या धराशायी होने लगी। ऐसे मुश्किल दौर में ‘द न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ का हाथ लौरी मैनीफोल्ड ने थाम लिया। मैनीफोल्ड को यदि आधुनिक खोजी पत्रकारिता का पिता कहा जाए तो शायद गलत न होगा। जल्द ही मैनीफोल्ड ने खाजी पत्रकारिता के तौर तरीकों में प्रशिक्षण देकर ट्रेवर कैम्पसन, माईक गैब्बर्ट और मज़हर महमूद जैसे पत्रकारों की जमात तैयार की । मैनीफोल्ड ने सनसनीखेज खबरों के एक नये युग का सूत्रपात तो किया मगर किसी भी कीमत पर शॉर्ट कट और अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। ‘द न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ ने समय- समय पर जनहित के लिए तमाम ऐसे खुलासे किए जिनके धमाकों की गूंज लंबे समय तक सुनाई देगी।
पर वक्त के साथ सब बदलता गया । उधर ‘द न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ के धुर विरोधी ‘द पीपल’ ने सैक्स और सेलेब्रिटियों को लेकर एक सीरीज शुरू की तो ‘द न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ ने छल-प्रपंच का सहारा लेकर आगे बढ़ना शुरू कर दिया । इसके बाद पादरियों, राजनेताओं और फिल्मी हस्तियों समेत तमाम रसूखदारों के यौन अवगुणों के पर्दाफाश की कहानियां छापना इसका रेगूलर फीचर बन गया। लोग चटखारे लेकर पढ़ रहे थे पर सैक्सी और सीरियस खबरों का संतुलन लगातार बिगड़ रहा था। शायद ब्रिटेन के समाज में आ रहे बदलावों के साथ पाठकों की पसंद भी बदल रही थी। अब अंतरंग संबंधों की चासनी में लिपटी खबरें और बेहद निजी बातें भी सार्वजनिक होने लगीं थीं। अख़बार छाप रहा था क्योंकि पाठक यही पढ़ना चाहता था। अधनंगी तस्वीरें, लोगों की नितांत व्यक्तिगत बातचीत, हैक्ड ई-मेल्स और मोबाइल संदेश छपना अब आम हो चला था । पर इस बीच अख़बार सही और गलत के बीच की सीमा-रेखा खींचना भूल गया। धंधे के नाम पर सब जायज था और बस यहीं से ‘द न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ के पतन की कहानी शुरू हो गई।
ये सच है कि लोगों की निजी जिंदगी में तांक-झांक के लिए कोई अख़बार कभी बंद नहीं हुआ। पर ‘द न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ ने सारी हदें पार कर दीं और इसने फोन टेप करने वाले तकनीशियनों, हैकरों की सेवाएं लेकर 7 जुलाई 2005 को लंदन आतंकी हमले में मारे गए एवं घायल हुए लोगों के रिश्तेदारों की फोन पर बातचीत एवं ई-मेल को हैक किया और छापा। पहली बार त्रासदी के छणों में लोगों की व्याकुलता और अभिव्यक्ति से अख़बार में मिर्च-मसाला डाला गया। लोगों की निजता के हनन नाम की अब कोई चीज नहीं रह गई थी । लेकिन अब शायद पाप का घड़ा भर चुका था। बवाल मचा और इस कदर मचा कि रूपर्ट मर्डोक का पूरा न्यूज कार्पोरेशन खतरे में पड़ गया। अलबत्ता ये रूपर्ट मर्डोक ही थे जिन्होंने ‘द न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ को पीत पत्रकारिता के गर्त में धकेला था। न्यूज इंटरनेशनल की सीईओ रेबेका ब्रूक्स विरोध के बावजूद अभी भी अपने पद पर बनी हुई हैं। रेबेका, ब्रिटिश प्रधानमंत्री कैमरून, पूर्व संपादक एंडी काउल्सन जो बाद में प्रधानमंत्री के जन संचार निदेशक बन गए, के आपसी समीकरण काफी कुछ कहते हैं। पर फिलहाल यहाँ प्रश्न एक अख़बार की असमय मृत्यु का है।
बेशक इस अख़बार के अंत के साथ पत्रकारिता के एक स्याह युग का अवसान हो गया मगर मुनाफे और प्रतिस्पर्धा के लिए ‘द न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ ने जिन मर्यादाओं का उल्लंघन किया वे भविष्य के लिए कुछ मापदंडों की ओर इशारा करती हैं जिन्हें टैब्लॉयड जर्नलिज्म के लिए पैमाना बनाना होगा ताकि फिर किसी अखबार को इस तरह गुडबाय न करना पड़े।
-सौरभ आर्य
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