आज
ओपिनियन पोल की विश्वसनियता और चुनाव आयोग द्वारा इन्हें बैन किए जाने की बात पर
घमासान मचा है. अभी आयोग सिर्फ राजनीतिक दलों से सुझाव मांग रहा है. मगर हंगामा
बरपा है. मुझे दस साल पहले का वो वक़्त याद आ रहा है जब यूनिवर्सिटी के दिनों में, मैं खुद एक बड़े चुनावी
सर्वेक्षण का हिस्सा रहा. दिल्ली की एक प्राइवेट सर्वेक्षण और मीडिया एजेंसी ने 2004 के लोक सभा चुनावों के दौरान पूरे हरियाणा में चुनावी सर्वेक्षण के
लिए कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से वॉलंटियर्स का एक इंटरव्यू के माध्यम से चयन
किया. लगभग 100 स्टूडेंट्स को चुना गया. 10 स्टूडेंट्स वाली 10 टीमें तैयार की गईं.
जिनमें एक टीम लीडर के साथ 9 और सर्वेक्षक साथ रहने थे.
नार्थ हरियाणा के पांच जिलों की कमान संभाल रहे एक अधिकारी के अंतर्गत कुल दस
यूनिटों को काम करना था. हर टीम के पास अपना वाहन था, जिला,
तहसील, गांव, के
हिसाब से पूरे 15 दिन तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक
सर्वेक्षण किया जाना था. एक-एक गांव, शहर और तहसील से
सैंपल लिए जाने थे....जिसमें हर सर्वेक्षक को पूरे दिन में कुल 18 लोगों से बात कर जनता का मिजा़ज सर्वे में दर्ज करना था. यानि कि 10 लोगों की एक टीम को पूरे दिन में 180 सैंपल
तैयार करने थे. हमें कहा गया कि इस सर्वेक्षण के परिणाम समाचार पत्रों में
प्रकाशित किए जाएंगे. हर स्टूडेंट को इस कार्य के लिए प्रतिदिन 250 रू बतौर पारिश्रमिक मिलना था. हमारे लिए यह सीखने के एक अच्छे अवसर
के साथ, अपने प्रदेश के गांव, गली-कूचों
को करीब से देखने का सुनहरा अवसर था.....हां पॉकेट मनी भी ठीक-ठाक बन जानी थी.
एक
टीम की कमान मुझे सौंपी गई. कई दिन तक सब ठीक चला. मगर दिमाग तो ठनक रहा था कि यार
ये कौन सी एजेंसी है जो पूरे हरियाणा में करोड़ों रूपए फूंक कर चुनावी सर्वेक्षण
करा रही है. कुछ ही दिनों में अंदाजा हो चला था कि किसी न किसी पॉलिटीकल पार्टी से
इस सर्वेक्षण की फंडिंग हो रही है. बस सारा उत्साह जाता रहा. सबसे पहले हमने अपने
पारिश्रमिक की राशि अंटी में की और फिर काम आगे बढ़ाया, पर
अभी भी कहीं न कहीं हमें ये गुमान था कि हम कुछ औरिजनल काम कर रहे हैं. हमारे
सर्वेक्षण का कुछ असर होगा. सर्वेक्षण सम्पन्न हुआ और सैकड़ों गांवों में हजारों
लोगों से बात करने के बाद हमारी टीम को साफ हो चला था कि इस बार सरकार किस दल की
बनेगी. खैर, सैंपल एजेंसी को सौंप दिए गए.......और हम भूल
गए. चंद रोज बाद अखबारों में इसी एजेंसी के हवाले से इस सर्वेक्षण के परिणाम
प्रकाशित हुए और जो परिणाम प्रकाशित हुए वे अंग्रेजी की भाषा में लोपसाइडेड थे.
मतलब एकदम उलट. यहां तक कि कुरूक्षेत्र सीट से जिस प्रत्याशी का नाम सर्वेक्षण के
संपन्न होने के दौरान घोषित ही नहीं था उसे भी सर्वेक्षण में बढ़त के साथ लगभग
विजयी दर्शाया गया था. मेरे पास सैंपल सर्वे के प्रश्नपत्र के कुछ नमूने थे. जो
ये साबित कर सकते थे कि सर्वे के परिणामों में फर्जीवाड़ा किया गया है. इसे कुछ प्रोफेसर्स
के संज्ञान में लाया गया....उन्होंने सलाह दी कि अभी सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान दो और
इस गंदी राजनीति का शिकार बनने से बचो. उन्होंने इस सर्वेक्षण के खेल के कई और
राज खोले. हम कई दिनों तक खुद को ठगा सा महसूस करते रहे. हां, चुनाव परिणाम ठीक वैसे निकले जैसा हमारी टीम ने सर्वेक्षण के दौरान
पाया था. एक तरह से ऐसे सर्वेक्षणों के परिणामों से भरोसा उठ गया मगर सर्वेक्षण पर
भरोसा और गहरा हो गया. हमने ये सीख लिया था कि सर्वेक्षण किए कैसे जाते हैं.
इस
सीख का इस्तेमाल कुछ ही दिनों बाद हमने अपनी यूनिवर्सिटी में ही कर ड़ाला. द
टारगेट सर्वे के नाम से कैंपस में 500 स्टूडेंट का सैंपल
साइज लेकर कैंपस की समस्याओं, वाइस चांसलर की
कार्यप्रणाली, होस्टलों की हालत और तमाम मुद्दों पर लगभग
40 प्रश्नों को केन्द्र में रखकर एक सर्वेक्षण कर डाला.
इसके असहज करने वाले परिणामों ने वाइस चांसलर साहब को भी असहज कर डाला. एक शाम
हमें वाइस चांसलर रेजीडेंस पर चाय के लिए बुलाया गया. हमें विश्वास दिलाया गया कि
सर्वे के परिणामों पर गंभीरता से विचार कर आवश्यक कार्रवाई की जाएगी. तो साहब,
कुल मिलाकर आज मचे बवाल पर यही कहना है कि सवेक्षण एक लोकतांत्रिक
व्यवस्था को सशक्त ही बनाते हैं, बशर्ते वे पूरी
ईमानदारी के साथ किए गए हों. किसी चीज की खामियों की वजह से उसे बैन कर देना समस्या
का समाधान नहीं है....जरूरत है कि उन खामियों को दूर किया जाए. सर्वेक्षणों का
संचालन पारदर्शिता से हो इसके लिए कुछ कायदे कानून जरूरी हैं....नहीं तो भैया लोग
अपना अपना सर्वेक्षण करा कर स्वयं को विजयी ही घोषित करते रहेंगे !!!